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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 15 'कुर्वति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुणन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६५ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' के स्थानापन्न रूप 'कुर्व' के स्थान पर प्राकृत में 'कुण' आदेश; और ३-१४२ से वर्तमान-काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कुणन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तव' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९९ से संस्कृतीय सर्वनाम 'युष्मत्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त रूप 'तव के स्थान पर प्राकृत में 'तुह' आदेश-प्राप्ति होकर 'तुह' रूप सिद्ध हो जाता है। __'कौल-नार्यः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कउल-णारीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति; २-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'कउल-णारीओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ निशा-चरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निसा-अरो' और निसि-अरो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-७२ से द्वितीय रूप में 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप में 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप; १-८ से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ संधि का अभाव; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य 'सि-स्' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'निसा-अरो' और 'निसि-अरो' सिद्ध हो जाते हैं।
'रजनी चरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रयणी-अरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' और 'च'का लोप: १-१८० से लोप हए'ज' के पश्चात शेष रहे हए 'अ'के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८ से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ संधि का अभाव और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रयणी अरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मनुजत्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मणुअत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'मणुअत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुम्भकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुम्भ-आरो' और कुम्भारो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १-८ की वृत्ति से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कुम्भ-आरो' और 'कुम्भारो' सिद्ध हो जाते हैं।
'सु-पुरुषः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सु-उरिसो' और 'सूरिसो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; १-८ की वृत्ति से लोप हुए 'प्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर 'उ' के साथ वैकल्पिक रूप से संधि; तदनुसार १-५ से द्वितीय रूप में दोनों 'उ' कारों के स्थान पर दीर्घ 'ऊ कार की प्राप्ति; १-१११ से 'रु' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'सु-उरिसो' और 'सूरिसो' सिद्ध हो जाते हैं।
'शात-वाहनः' संस्कृत रूप है। इसक प्राकृत रूप '(साल + आहणो' =) 'सालाहणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श् के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-८
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