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________________ 16 : प्राकृत व्याकरण की वृत्ति से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' की उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने पर भी पूर्वस्थ 'ल' में स्थित 'अ' के साथ संधि; १ - २२८ से 'न; के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सालाहणो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'चक्रवाकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चक्काओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'व्' और द्वितीय (अन्त्य) 'क्' कालोप; १-८ की वृत्ति से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' की उवृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने पर भी १-५ से पूर्वस्थ 'क्क' में स्थिति 'अ' के साथ उक्त 'आ' की सन्धि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'चक्काओ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-८।। त्यादेः ।। १-९।। तिबादीनां स्वरस्य स्वरे परे संधि र्न भवति ।। भवति इह । होइ इह ।। अर्थ :- धातुओं में अर्थात् क्रियाओं में संयोजित किये जाने वाले काल बोधक प्रत्यय 'तिब्' 'तः' और 'अन्ति' आदि के प्राकृतीय रूप ‘इ', 'ए' 'न्ति', 'न्ते' और 'इरे' आदि में स्थित अन्त्य 'स्वर' की आगे रहे हुए सजातीय स्वरों के साथ भी संधि नहीं होती है। जैसे:- भवति इह । होइ इह । इस उदाहरण में प्रथम 'इ' तिबादि प्रत्यय सूचक है और आगे भी सजातीय स्वर 'इ' की प्राप्ति हुई; परन्तु फिर भी दोनों 'इकारों' की परस्पर में संधि नहीं हो सकती है। यों संधि-गत विशेषता को ध्यान 'रखना चाहिये। 'भवति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'होइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से संस्कृत धातु 'भू' के स्थानीय रूप विकरण-प्रत्यय सहित 'भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' आदेश और ३- १३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होइ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'इह' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'इह' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-४४८ से साधनिका की आवश्यकता नहीं होकर 'इह' रूप ही रहता है । १-९ ।। लुक् ।। १-१० ।। स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लुग् भवति ।। त्रिदशेशः । तिअसीसो।। निःश्वासोच्छ्वासौ । नीसासूसासा ।। अर्थ :- प्राकृत-भाषा में (संधि-योग्य) स्वर के आगे स्वर रहा हुआ हो तो पूर्व के स्वर का अक्सर करके लोप हो जाया करता है। जैसे:- त्रिदश + ईशः = त्रिदशेशः = तिअस + ईसो - तिअसीसो और निःश्वास+ उच्छ्वासः निश्वासोच्छ्वासौ=नीसासो + ऊसासो - नीसासूसासा । इन उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण में ' अ+ई' में से 'अ' का लोप हुआ है और द्वितीय उदाहरण में 'ओ + ऊ' में से 'ओ' का लोप हुआ है । यों 'स्वर के बाद स्वर आने पर पूर्व स्वर के लोप' की व्यवस्था समझ लेनी चाहिये। 'त्रिदश + ईश':- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिअसीसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'त्रि' में स्थित 'र्' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप; १ - २६० से दोनों 'श' कारों के स्थान पर क्रम से दो 'स' कारों की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रथम 'स' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे 'ई' स्वर की प्राप्ति होने से लोप; तत्पश्चात् शेष हलन्त 'स्' आगे रही हुई 'ई' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तिअसीसो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'निःश्वासः + उत् + श्वासः निश्वासोच्छवासौ' संस्कृत द्विवचनांत रूप है। इसका प्राकृत रूप (द्विवचन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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