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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 17
अभाव होने से) बहुवचनांत रूप 'नीसासो + ऊसासो - नीसासूसासा होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३ से 'निः' में स्थित विसर्ग के स्थानीय रूप 'र्' का लोप; १ - ९३ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष 'नि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ प्राप्ति; १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्त; २-७९ से 'व' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होने से प्रथम पद 'नीसासो' की प्राप्ति; द्वितीय पद में १ - ११ की वृत्ति से 'उत्' में स्थित हलन्त 'त्' का लोप; १-४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २- ७९ से 'व्' का लोप; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होने से द्वितीय पद 'ऊसासो' की प्राप्ति; १ - १० से प्रथम पद 'नीसासो' के अन्त्य व्यञ्जन 'सो' में स्थित 'ओ' स्वर के आगे 'ऊसासो' का 'ऊ' स्वर रहने से लोप; तत्पश्चात् शेष हलन्त व्यञ्जन 'स्' में 'ऊ' स्वर की संधि संयोजना; ३ - १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; तदनुसार ३-४ से प्राप्त रूप 'नीसासूसास' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप और ३ - १२ में प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर समासात्मक 'नीसासूसासा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १-१०।।
अन्त्यव्यञ्जनस्य ।। १-११ ।
शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग् भवति ।। जाव । ताव। जसो। तमो । जम्मो । समासे तु वाक्य- विभक्त्यपेक्षायाम् अन्त्यत्वम् अनन्त्यत्वं च । तेनोभयमपि भवति । सद्भिक्षुः सभिक्खू । सज्ज्नः । सज्जणो । एतद्गुणाः । एअ- गुणा । तद्गुणाः । तग्गुणा ।
अर्थ :- संस्कृत शब्दों में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन का प्राकृत रूपान्तरण में लोप हो जाता है। जैसे - यावत् = जाव; तावत्-ताव्; यशस् - यश: - जसो; तमस् - तमः तमो; और जन्मन् - जन्म - जम्मो; इत्यादि । समास-गत शब्दों में मध्यस्थ शब्दों के विभक्ति - बोधक प्रत्ययों का लोप हो जाता है; एवं मध्यस्थ शब्द गौण हो जाते हैं तथा अन्त्य शब्द मुख्य हो जाता है; तब मुख्य शब्द में ही विभक्ति- बोधक प्रत्यय संयोजित किये जाते हैं; तदनुसार मध्यस्थ शब्दों में स्थित अन्तिम हलन्त व्यञ्जन को कभी-कभी तो 'अन्त्य व्यञ्जन' की संज्ञा प्राप्त होती है और कभी-कभी ' अन्त्य व्यञ्जन'
संज्ञा नहीं भी प्राप्त होती है; ऐसी व्यवस्था के कारण से समास-गत मध्यस्थ शब्दों के अन्तिम हलन्त व्यञ्जन 'अन्त्य' और अनन्त्य' दोनों प्रकार से कहे जा सकते हैं। तदनुसार सूत्र संख्या १ - ११ के अनुसार जब समास- गत मध्यस्थ शब्दों में स्थित अन्तिम हलन्त व्यञ्जन को 'अन्त्य - व्यञ्जन' की संज्ञा प्राप्त तो उस ' अन्त्य - व्यञ्जन' का लोप हो जाता है और यदि उस व्यञ्जन को 'अन्त्य - व्यञ्जन' नहीं मानकर 'अनन्त्य व्यञ्जन' माना जायगा तो उस हलन्त व्यञ्जन का लोप नहीं होगा। जैसे- सद्- भिक्षुः = सभिक्खू इस उदाहरण में 'सद्' शब्द में स्थित 'द्' को ' अन्त्य - हलन्त - व्यञ्जन ' मानकर के इसका लोप कर दिया गया है। सत् + जनः सज्जनः = सज्जणो; इसमें 'सत्' के 'त्' को 'अनन्त्य' मान करके 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' के रूप में परिणत किया है। अन्य उदाहरण इस प्रकार है - एतद्गुणाः = एअ - गुणा और तद्-गुणाः-तग्गुणा; इन उदाहरणों में क्रम से अन्त्यत्व और अनन्त्यत्व माना गया है; तदनुसार क्रम से लोप - विधान और द्वित्व-विधान किया गया है। यों समास - गत मध्यस्थ शब्दों के अन्तिम हलन्त व्यञ्जन की ' अन्त्य - स्थिति' तथा अनन्त्य - स्थिति' समझ लेनी चाहिये।
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'यावत्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'जाव' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य्' के स्थान पर : 'ज्' की प्राप्ति और १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'जाव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तावत्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'ताव' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप होकर 'ताव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'यशस्' (= यशः) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'यू' के स्थान
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