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18 : प्राकृत व्याकरण
पर 'ज्' की प्राप्ति १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जस' को पुल्लिगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त (में प्राप्त) पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जसो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'तमस्' (= तमः) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'तम' को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
अकारान्त (में प्राप्त) पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तमो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'जन्मन्' - (जन्म) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जम्मो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से प्रथम हलन्त 'न्'
का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म'को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जम्म' को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त (में प्राप्त) पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जम्मो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सभिक्षुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सभिक्खू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'द्' का लोप; २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'सभिक्खू रूप सिद्ध हो जाता है।
'सज्जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सज्जणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ की वृत्ति से प्रथम हलन्त 'ज्' को अनन्त्यत्व की संज्ञा प्राप्त होने से इस प्रथम हलन्त 'ज्' को लोपाभाव की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सज्जणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एतद्गुणाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एअ-गुणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ में 'त्' का लोप; १-११ से हलन्त 'द्' को अन्त्य-व्यञ्जन की संज्ञा प्राप्त होने से 'द्' का लोप; ३-४ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'एअ-गुण' में प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय-प्रत्यय 'जस्' की प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ से प्राप्त तथा लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'एअ-गुणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तद्गुणाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तग्गुणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ में नहीं किन्तु २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग्' की प्राप्ति; शेष साधनिका उपरोक्त 'एअ-गुणा' के समान ही ३-४ तथा ३-१२ से होकर 'तग्गुणाः' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११।।
न श्रदुदोः ॥ १-१२ ॥ श्रद् उद् इत्येतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य लुग् न भवति।। सद्दहि सद्धा। उग्गय। उन्नयं।।
अर्थः- 'श्रद्' और 'उद्' में रहे हुए अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप नहीं होता है। जैसे:- श्रद+दधितम्= सधहिअं; श्रद् + धा=श्रद्धा-सद्दा; उद् + गतम् उग्गय और उद् + नतम् उन्नयं। प्रथम दो उदाहरणों में श्रद्' में स्थित 'द्' यथावत अवस्थित है; और अन्त के दो उदाहरणों में 'उद्' में स्थित 'द्' अक्षरान्तर होता हुआ अपनी स्थिति को प्रदर्शित कर रहा है; यों लोपाभाव की स्थिति 'श्रद्' और 'उद्' में व्यक्त की गई है।
'श्रद्दधितम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्दहि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'श' 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१२ से प्रथम 'द्' का लोपाभाव; १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सद्दहिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
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