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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 19 'श्रद्धा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्धा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-१२ से 'द्' का लोपाभाव होकर 'सद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उद् + गतम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उग्गय होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का (प्रच्छन्न रूप से) लोप; २-८९ से (प्रच्छन्न रूप से) लुप्त 'द्' के पश्चात् आगे रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त'का लोपः१-१८० से लोप हए 'त' के पश्चात शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उग्गय रूप सिद्ध हो जाता है। 'उद् + नतम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उन्नय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का (प्रच्छन्न रूप से) लोप; २-८९ से (प्रच्छन्न रूप से) लुप्त 'द्' के स्थान पर आगे रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; १-१७७ से :१-१८० से लोप हए'त' के पश्चात शेष रहे हए'अ'के स्थान पर 'य की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उन्नय रूप सिद्ध हो जाता है। १-१२।। निर्दुरोर्वा ॥ १-१३ ॥ निर् दुर् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति।। निस्सहं नीसह। दुस्सहो दूसहो। दुक्खिओ दुहिओ।। अर्थः- “निर्' और 'दुर्' इन दोनों उपसर्गों में स्थित अन्त्य हलन्त-व्यञ्जन 'र' का वैकल्पिक रूप से लोप होता है। जैसे :- निर् + सहं (निःसह) के प्राकृत रूपान्तर निस्सहं और नीसह होते हैं। दुर् : सहः (=दुस्सहः) के प्राकृत रूपान्तर दुस्सहो और दूसहो होते हैं। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि 'निस्सह' और 'दुस्सहो' में 'र' का (प्रच्छन्न रूप से) सद्भाव है; जबकि 'नीसह' और 'दूसहो' में 'र' का लोप हो गया है। दुःखितः दुक्खिओ और दूहिओ। इन उदाहरणों में से प्रथम में 'विसर्ग' के पूर्व रूप 'र' का प्रच्छन्न रूप से 'क' रूप में सद्भाव है और द्वितीय उदाहरण में उक्त 'र' का लोप हो गया है। यों वैकल्पिक रूप से 'दुर्' और 'निर्' में स्थित 'र' का लोप हुआ करता है। ___ "निःसह' (-निर् + सह) संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'निस्सह' और 'नीसह' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' के स्थान पर लोपाभाव होने से विसर्ग' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्त विसर्ग' के स्थान पर आगे 'स' होने से 'स्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'निस्सह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (निर् + सह=) नीसहं में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' का लोप; १-९३ से 'न' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'नीसह भी सिद्ध हो जाता है। 'दुर् + सहः (-दुःसहः) संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुस्सहो' और 'दूसहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' का लोपाभावः ४-४४८ से अलुप्त 'र' के स्थानीय रूप 'विसर्ग' के स्थान पर आगे 'स्' वर्ण होने से 'स्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दुस्सहो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(दुर् + सहः=) दूसहो में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' का लोप; १-११५ से हस्व 'उ' के स्थान पर 'ऊ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय-रूप 'दूसहो' भी सिद्ध हो जाता है। 'दुःखितः' (-दुर् + खितः) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुक्खिओ' और 'दुहिओ' होते हैं। इनमें से प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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