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20 : प्राकृत व्याकरण रूप में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग का लोपाभाव; ४-४४८ से प्राप्त विसर्ग' के स्थान पर जिहवामूलीय रूप हलन्त 'क्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दुक्खिओ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दुःखितः=) 'दुहिओ' में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप 'विसर्ग' का लोप; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दुहिओ' सिद्ध हो जाता है। १-१३।।
स्वरेन्तरश्च ॥ १-१४ ।। अन्तरो निर्दुरोश्चान्त्य व्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग् न भवति।। अन्तरप्पा। निरन्तरं। निरवसेसं।। दुरूत्तरं। दुरवगाह।। क्वचिद् भवत्यपि। अन्तोवरि।।
अर्थ :- 'अन्तर्', 'निर्' और 'दुर' उपसर्गो में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'र' का उस अवस्था में लोप नहीं होता है जबकि इस अन्त्य 'र' के आगे 'स्वर' रहा हुआ हो। जैसे-अन्तर् + आत्मा अन्तरप्पा। निर् + अन्तरं-निरन्तरं । निर् + अवशेषम् निरवसेसं। 'दुर' के उदाहरणः- दु+उत्तरं-दुरुत्तरं और दुर् + अवगाह- दुरवगाहं कभी-कभी उक्त उपसर्गों में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'र' के आगे स्वर रहने पर भी लोप हो जाया करता है। जैसे- अन्तर + उपरि अन्तरोपरि अन्तोवरि। अन्तर् + आत्मा अन्तरात्मा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तरप्पा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'र' के साथ प्राप्त 'अ' की संधि; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-११ से मूल संस्कृत शब्द-'आत्मन् के अन्त्य 'न्' का लोप, ३-४९ तथा ३-५६ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में 'न्' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष अकारान्त रूप में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'अन्तरप्पा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___"निरन्तरम' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निरन्तर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से 'निर्' में स्थित अन्त्य ' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'अ' की सधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निरन्तर रूप सिद्ध हो जाता है।
निर् + अवशेषम् निरवशेषम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निरवसेसं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'अ' की संधि १-२६० से 'श' और 'ष' के स्थान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से अथवा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निरवसेसं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुर् + उत्तरं दुरुत्तरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुरूत्तरं 'होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ 'उ' की संधि और शेष साधनिका ३-२५ और १-२३ से 'निरवसेस के समान ही होकर 'दुरूत्तरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुर् + अवगाहम् =दुरवगाहम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'दुरवगाह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ 'अ' की सधि और शेष साधनिका ३-२५ तथा १-२३ से 'निरवसेस के समान ही होकर 'दुरवगाह रूप सिद्ध हो जाता है।
'अन्तरोपरि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तोवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ की वृत्ति से प्रथम 'र' का लोप; १-१० से 'त' में स्थित 'अ' के आगे 'ओ' आ जाने से लोप; १-५ से हलन्त 'त्' के साथ आगे रहे हुए 'ओ' की संधि; और १-२३१ से 'प्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होकर 'अन्तोवरि' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४।।
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