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252 : प्राकृत व्याकरण 'बम्हणो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। ब्रह्मचेरं रूप की सिद्धि-सूत्र संख्या १-५९ में की गई है।
'ब्राह्मणः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (बम्हणो के अतिरिक्त) 'बम्भणो' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्म' के स्थान पर 'म्भ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बम्भणो' रूप की सिद्धि हो जाती है। ___ 'ब्रह्मचर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (बम्हचेरं के अतिरिक्त) 'बम्भचेर' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्म' के स्थान पर 'म्भ' आदेश की प्राप्ति; १-५९ से 'च' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'बम्भचेरं रूप की सिद्ध हो जाता है। __ श्लेष्मा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिम्भो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से दीर्घ स्वर (अ+इ)= ए के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्भ' आदेश की प्राप्ति; १-११ से संस्कृत मूल शब्द 'श्लेष्मन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में (प्राप्त रूप सिम्भ में)-'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिम्भो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रस्सी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।
'स्मरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७४॥
सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-ह्न हण-क्ष्णां ग्रहः ।। २–७५॥ सूक्ष्म शब्द संबन्धिनः संयुक्तस्य श्न-ष्ण-स्न-ह्र-ण-क्षणां च णकाराक्रान्तो हकार आदेशो भवति।। सूक्ष्म। सण्ह। श्न। पण्हो। सिण्हो।। ष्णा विण्हू। जिण्हू। कण्हो। उण्हीसं।। स्न। जोण्हा। ण्हाओ। पण्हुओ।। ह्न। वण्ही। जण्हू।। ह्ण। पुव्वण्हो। अवरोहो।। क्ष्ण। सुण्ह। तिण्ह।। विप्रकर्षे तु कृष्ण कृत्स्न शब्दयोः कसणो। कसिणो।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'सूक्ष्म' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्म' के स्थान पर 'ण' सहित 'ह' का अर्थात् ‘ण्ह' का
आदेश होता है। जैसे:- सूक्ष्मम्=सण्ह।। इसी प्रकार से जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'श्न', 'ष्ण'स्न'; 'ह्न'; 'ण', अथवा 'क्ष्ण' रहे हुए होते हैं; तो ऐसे संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'ण' सहित 'ह' का अर्थात् 'ह' का आदेश होता है। जैसे-'श्न' के उदाहरणः-प्रश्नः-पण्हो। शिश्नः सिण्हो।। 'ष्ण' के उदाहरणः- विष्णुः-विण्हू। जिष्णुः जिण्हू। कृष्णः कण्हो। उष्णीषम्:-उण्हीस।। स्न' के उदाहरणः- ज्योत्स्ना-जोण्हा। स्नातः=ण्हाओ। प्रस्तुतः-पण्हुओ। 'ह्न' के उदाहरण:- वह्नि==वण्ही जहनुः=जण्हू।। ण' के उदाहरणः-पूर्वाह्णः पुव्वण्हो। अपराह्णः अवरहो।। 'क्ष्ण' के उदाहरण-श्लक्ष्णम्-सण्ह। तीक्ष्णम्-तिण्ह।। ___ संस्कृत भाषा में कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जिनमें संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्न' रहा हुआ हो; तो भी प्राकृत रूपान्तर में ऐसे संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्न' के स्थान पर इस सूत्र संख्या २-७५ से प्राप्तव्य ‘ण्ह' आदेश की प्राप्ति नहीं होती है। इसका कारण प्राकृत रूप का उच्चारण करते समय 'विप्रकर्ष स्थिति है। व्याकरण में 'विप्रकर्ष' स्थिति उसे कहते हैं; जबकि शब्दों का उच्चारण करते समय अक्षरों के मध्य में 'अ' अथवा 'इ' अथवा 'उ' स्वरों में से किसी एक स्वर का 'आगम' हो जाता हो; एवं ऐसे आगम रूप स्वर की प्राप्ति हो जाने से बोला जाने वाला वह शब्द अपेक्षाकृत कुछ
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