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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 251 आदेश होता है। जैसे:-पक्ष्माणि पम्हाइं।। इसी प्रकार से यदि किसी संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' 'म'; 'स्म' अथवा 'म' रहा हुआ हो तो ऐसे संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में हलन्त व्यञ्जन 'म्' सहित 'ह' का अथात् 'म्ह' का आदेश हुआ करता है। 'क्ष्म' का उदाहरण:- पक्ष्मल-लोचना पम्हल-लोअणा।। 'श्म। उदाहरण:-कुश्मानः कुम्हाणो।। कश्मीराः कम्हारा।।'ष्म' के उदाहरणः ग्रीष्म गिम्हो।। ऊष्मा उम्हा।। 'स्म' के उदाहरणःअस्मादृशः अम्हारिसो।। विस्मयः विम्हओ।। 'झ' के उदाहरणः- ब्रह्मा: बम्हा।। सुह्मः समाः। ब्रह्मणः बम्हणो।। ब्रह्मचर्यम्-बम्हचे।। इत्यादि।। किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन ‘ह्म' अथवा 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति नहीं होकर 'म्भ' की प्राप्ति होती हुई भी देखी जाती है। जैसे:-ब्राह्मण; बम्भणो।। ब्रह्मचर्यम्=बम्भचेरं।। श्लेष्मा-सिम्भो।। किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' अथवा 'स्म' के स्थान पर न तो 'म्ह' की प्राप्ति होती है और न 'म्भ' की प्राप्ति ही होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- रश्मिः -रस्सी और स्मरः-सरो।। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।। 'पक्ष्माणिः' संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पम्हाइं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'णि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पम्हाइं" रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पक्ष्मल-लोचना' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पम्हल-लोअणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर 'पम्हल-लोअणा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कुश्मानः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुम्हाणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' के स्थान पर 'म्ह' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कुम्हाणो रूप सिद्ध हो जाता है। 'कम्हारा रूप' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०० में की गई है। 'ग्रीष्मः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिम्हो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त-पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गिम्हो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'ऊष्मा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उम्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; और २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति होकर 'उम्हा' रूप सिद्ध हो जाता है। अम्हारिसो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। "विस्मयः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विम्हओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर 'विम्हओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'ब्रह्मा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बम्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप और २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति होकर 'बम्हा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'सुझाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुम्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन ‘ह्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सुम्हा' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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