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________________ 160: प्राकृत व्याकरण प्रश्नः-शब्द के आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-क्योकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'ठ' का 'ढ' नहीं होगा। जैसे:-हृदये तिष्ठति-हिअए ठाइ।। मठः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप मढा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मढा रूप सिद्ध हो जाता है। शठः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सढो रूप सिद्ध हो जाता है। कमठः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कमढो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कमढो रूप सिद्ध हो जाता है। कुठारः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कुढारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुढारो रूप सिद्ध हो जाता है। __पठति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढइ रूप सिद्ध हो जाता है। वैकुण्ठः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप वेकुंठो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-२५ से 'ण' के स्थान पर 'अनुस्वार' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेकुंठो रूप सिद्ध हो जाता है। तिष्ठतिः संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है ! इसका प्राकृत रूप चिटुइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर 'चिट्ठ' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिट्ठइ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हृदय संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप हिअए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' और 'य' दोनों वर्णो का लोप; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग में 'ङि'='ई' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हिअए रूप सिद्ध हो जाता है। तिष्ठति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है इसका प्राकृत रूप ठाइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर 'ठा' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ठाइ रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१९९।। अङ्कोठे ल्लः ।। १-२००।। अङ्कोठे ठस्य द्विरुक्तो लो भवति।। अङ्कोल्ल तेल्लतुप्पं।। अर्थः-संस्कृत शब्द अङ्कोठ में स्थित 'ठ' का प्राकृत रूपान्तर में द्वित्व 'ल्ल' होता है। जैसे अङ्कोठ तैल घृतम् अङ्कोल्ल-तेल्ल-तुप्प।। __ अंकोठ संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप अङ्कोल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०० से 'ठ' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर अकोल्ल रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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