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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 161 तैल संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तेल्ल होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१४५ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और २-९८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर 'तेल्ल' रूप सिद्ध हो जाता है।
घृतम् संस्कृत रूप है। इसका देश्य रूप तुप्पं होता है। इसमें सूत्र संख्या का अभाव है; क्योंकि घृतम् शब्द के स्थान पर तुप्पं रूप की प्राप्ति देश्य रूप से है; अतः तुप्पं शब्द रूप देशज है; न कि प्राकृत ।। तदनुसार तुप्प देश्य रूप में ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देश्य रूप तुप्पं सिद्ध हो जाता है ।।। १- २०० ॥
पिठरे हो वा रश्च डः ।। १-२०१।।
पिठरे ठस्य हो वा भवति तत् संनियोग च रस्य डो भवति ।। पिहडो पिढरो ।।
अर्थः-पिठर शब्द में स्थित 'ठ' का वैकल्पिक रूप से 'ह' होता है। अतः एक रूप में 'ठ' का 'ह' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ठ' का 'ढ' होगा। जहां 'ठ' का 'ह' होगा; वहां पर एक विशेषता यह भी होगी कि पिठर शब्द में स्थित 'र' का 'ड' हो जायगा। जैसे:- पिठरः - पिहडो अथवा पिढरो । पिडरो।
पिठरः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पिहडो और पिढरो होते हैं। इसमें प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २०१ से 'ठ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ह' की प्राप्ति और इसी सूत्रानुसार 'ह' की प्राप्ति होने से 'र' को 'ड' की प्राप्ति तथा से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पिहडो रूप सिद्ध हो जाता है।
३-२
द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या १ - १९९ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति और ३-२ से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पिढरो भी सिद्ध हो जाता है ।। १- २०१ ।।
डो लः ।। १- २०२॥
स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्डस्य प्रायो लो भवति ।। वडवामुखम्। वलयामुहं ।। गरूलो।। तलायं । कीलइ || स्वरादित्येव। मोंड। कोंडं । असंयुक्तस्येत्येव । खग्गो ।। अनादेरित्येव । रमइ डिम्भो || प्रायो ग्रहणात् क्वचिद् विकल्पः । वलिसं वडिस । दालिमं दाडिमं । गुलो गुडो । णाली गाड़ी । णलं गडं । आमेलो आवेडो ॥ क्वचिन्न भवत्येव । निबिडं । गउडो । पीडिअं । नीडं । उडू तडी ।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त - (स्वर रहित) भी न हो तथा आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ड' वर्ण का प्रायः 'ल' होता है। जैसे- वडवामुखम् = वलयामुहं । । गरूडः=गरूलो।। तडागम्-तलायं । क्रीडति कील ||
प्रश्नः - " स्वर से परे रहता हुआ हुआ हो" ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'ड' का 'ल' नहीं होगा । जैसे:-मुण्डम्-मोंडं और कुण्डम्=कोंडं इत्यादि।।
प्रश्नः - "संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; अर्थात् असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये" ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण संयुक्त होगा - हलन्त होगा - स्वर से रहित होगा; तो उस 'ड' वर्ण का 'ल' नहीं होगा। जैसे:-खड्गः खग्गो । ।
प्रश्नः - " अनादि रूप से स्थित हो; शब्द के आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; शब्द में प्रारंभिक-अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहा गया है ?
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