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________________ 182 : प्राकृत व्याकरण परिखा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत फलिहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और १-१८७ से 'ख' का 'ह' होकर फलिहा रूप सिद्ध हो जाता है। पनसः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत फणसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फणसो रूप सिद्ध हो जाता है। पारिभद्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फालिहद्दो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२५४ से 'र' का 'ल'१-१८७ से 'भ'का 'ह' १-७९ से द्वितीय 'र' का लोप: २-८९ से 'द' का द्वित्व 'दृ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पालिहद्दो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२३२।। प्रभूते वः।। १-२३३।। प्रभूते पस्य वा भवति।। वहुत्तं अर्थः-प्रभूत विशेषण में स्थित 'प' का 'व' होता है। जैसे:-प्रभूतम् वहुत्त।। प्रभूतम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत वहुत्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३३ से 'प' का 'व'; २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' का 'ह' १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' का ह्रस्व स्वर 'उ'; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; से ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वहुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२३३।। नीपापीडे मो वा।। १-२३४।। अनयोः पस्य मो वा भवति।। नीमो नीवो। आमेलो आवेडो।। अर्थः-नीप और आपीड शब्दों में स्थित 'प' का विकल्प से 'म' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'प' का 'म' होता है और द्वितीय रूप में 'प' का 'व' होता है। जैसे:-नीपः नीमो अथवा नीवो और आपीड: आमेलो और आवेडो।। नीपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत नीमो और नीवो होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३४ से 'प' का विकल्प से 'म' और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' तथा दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से नीमो और नीवो रूप सिद्ध हो जाते है। अमिलो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है। आवेडा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०२ में की गई है।।। १-२३४।। पापर्धी रः॥ १-२३५।। पापद्धवपदादो पकारस्य रो भवति।। पारद्धी।। अर्थः-पापर्द्धि शब्द में रहे हुए द्वितीय 'प' का 'र' होता है जैसे:-पापर्द्धि: पारद्धी।। इसमें विशेष शर्त यह कि 'पापर्द्धि' शब्द वाक्य के प्रारम्भं में नहीं होना चाहिये; तभी द्वितीय 'प' का 'र' है यह बात वृत्ति में 'अपदादौ' से बतलाई है। पापर्द्धिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत पारद्धो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३५ से द्वितीय 'प' का 'र'; २-७९ से रेफ रूप 'र' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पारद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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