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38: प्राकृत व्याकरण
'कम्पते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कम्पई' और 'कंपइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कम्पइ' और 'कंपइ सिद्ध हो जाते हैं।
'कांक्षति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत (आदेश-प्राप्त) रूप 'वम्फई' और 'वंफई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-१९२ से संस्कृत धातु 'कांक्ष्' के स्थान पर प्राकृत में 'वम्फ' की आदेश प्राप्ति; १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त धातु रूप 'वम्फ्' और 'वंफ्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप "वम्फड' और 'वंफड' सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'कलम्बः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कलम्बो' और 'कलंबो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कलम्बो' और 'कलंबो' सिद्ध हो जाते हैं। _ 'आरम्भः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आरम्भो' और 'आरंभो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'आरम्भो' और 'आरंभो' सिद्ध हो जाते हैं। __ 'संशयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संसओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संसओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'संहरति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संहरइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत धातु 'संहर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संहरइ' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३०।।
प्रावृट-शरत्तरणयः पुसि ॥१-३१।। प्रावृष् शरद् तरणि इत्येते शब्दाः पुंसि पुल्लिङ्गे प्रयोक्तव्याः।। पाउसो। सरओ। एस तरणी।। तरणि शब्दस्य पुंस्त्रीलिङ्गत्वेन नियमार्थमुपादानम्॥
अर्थः- संस्कृत भाषा में प्रावृष (अर्थात् वर्षा ऋतु) शरद् (अर्थात् ठंड ऋतु) और तरणि (अर्थात् नौका नाव विशेष) शब्द स्त्रीलिंग रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं; परन्तु प्राकृत-भाषा में इन शब्दों का लिंग-परिवर्तन हो जाता है और ये पुल्लिग रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं। जैसे-प्रावृष्=पाउसो; शरद्=सरओ और एषा तरणिः एस तरणी। संस्कृत-भाषा में 'तरणि' शब्द के दो अर्थ होते हैं; १-सूर्य और २-नौका; तदनुसार 'सूर्य-अर्थ' में तरणि शब्द पुल्लिंग होता है और 'नौका' अर्थ' में यही तरणि शब्द स्त्रीलिंग वाला हो जाता है; किन्तु प्राकृत भाषा में 'तरणि' शब्द नित्य पुल्लिग ही होता है; इसी तात्पर्य-विशेष को प्रकट करने के लिये यहां पर 'तरणि' शब्द का मुख्यतः उल्लेख किया गया है।
'पाउसो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९ में की गई है। 'सरओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८ में की गई है।
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