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286 : प्राकृत व्याकरण
विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किलिट्ठ रूप सिद्ध हो जाता है।
"श्लिष्टम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिलिटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श् में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'किलिटुं' के समान ही प्राप्त होकर 'सिलिटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्लुष्टम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिलुटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'किलिट्र के समान ही प्राप्त होकर 'पिलुटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्लोषः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिलोसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पिलोसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सिलिम्हो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५५ में की गई है।
'श्लेषः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिलेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'शि' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-२६० से द्वितीय 'ष' के स्थान पर भी 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिलेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शुक्लम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुक्किलं' और 'सुइल' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-९९ से प्राप्त 'कि' में स्थित 'क्' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सुक्किलं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(शुक्लम्= ) 'सुइल' में सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर स्' की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'कि' में स्थित 'क्' का लोप और शेष साध निका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सुइल' भी सिद्ध हो जाता है।
'श्लोकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिलोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त शि' में स्थित 'श् के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिलोओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्लेशः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'किलेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आम्लम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्बिल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५६ (?) हलन्त 'म्' में हलन्त 'ब्' रूप आगम की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित एवं आगम रूप से प्राप्त 'ब' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन
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