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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 285 'अमर्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अमरिसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अमरिसो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'तप्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तविओ' और 'तत्ता' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२३१ से प्राप्त 'पि' में स्थित 'प्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तविओ' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(तप्तः=) तत्तो में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' का लोप; २-८९ से शेष द्वितीय 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'तत्तो' भी सिद्ध हो जाता है। 'वज्रम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वरं' और 'वज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'ज्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'जि' में स्थित 'ज्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'वइरं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप वज्जं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। ।। २-१०५।। लात् ।। २-१०६॥ संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात्पूर्व इद् भवति।। किलिन्न। किलिटुं। सिलिटुं। पिलुटुं पिलोसो। सिलिम्हो। सिलेसो। सुक्किलं। सुइला सिलोओ। किलेसो। अम्बिल। गिलाइ। गिलाणं। मिलाइ। मिलाणं। किलम्मइ। किलन्त।। क्वचिन्न भवति।। कमो। पवो। विप्पवो। सुक्क-पक्खो।। उत्प्लावयति। उप्पावे।। अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में ऐसा संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ हो; जिसमें 'ल' वर्ण अवश्य हो तो ऐसे उस 'ल' वर्ण सहित संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति प्राकृत रूपान्तर में होती है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- क्लिन्नम् किलिन्न।। क्लिष्टम्=किलिटुं। रिलष्टम्=सिलिटुं। प्लुष्टम्=पिलुटुं। प्लोषः पिलोसो। श्लेष्मा सिलिम्हो।। श्लेषः सिलेसो। शुक्लम्-सुक्किलं।। शुक्लम्=सुइल।। श्लोकः सिलिओ। क्लेशः-किलेसो।। आम्लम्=अम्बिल।। ग्लायति-गिलाइ।। ग्लानम्-गिलाण।। म्लायति-मिलाइ।। म्लानम्-मिलाणं।। क्लाम्यतिकिलम्मइ।। क्लान्तम-किलन्त।। किसी-किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन वाले 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:- क्लमः कमो। प्लवः पवो।। विप्लवः विप्पवो।। शुक्ल पक्षः-सुक्क-पक्खो।। और उत्प्लावयति-उप्पावेइ।।इत्यादि।। इन उदाहरणों में ल'का लोप हो गया है; परन्तु 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों सर्व-स्थिति का ध्यान रखना चाहिये।।। 'क्लिन्नम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलिन्न' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किलिन्नं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्लिष्टम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलिटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से ल' के पूर्व न्त व्यञ्जन 'क' में आगम रूप'इ' की प्राप्ति: २-३४ से संयक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति: २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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