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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 227 'प्रवर्तते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पयट्टइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-१७७ से व्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पयट्टइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वर्तुलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वटुलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वटुलं' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'राज-वार्तिकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रायवट्टय' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट्' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-८८ से 'ति' के स्थान पर पूर्वानुसार प्राप्त 'ट्टि' में स्थित 'इ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'राय-वट्टयं रूप सिद्ध हो जाता है। 'नर्तकी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नट्टइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'नट्टई रूप सिद्ध हो जाता है। 'संवर्तितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संवट्टि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संवट्टि रूप सिद्ध हो जाता है। धुत्तो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'कीति' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कित्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'की' में स्थित दीर्घस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से '' का लोप २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'कित्ती' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वार्ता' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वत्ता' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'वा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप २-८९ से लोप हुए 'र' में से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर 'वत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। 'आवर्तनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आवत्तणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आवत्तणं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'निवर्तनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निवत्तणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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