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________________ 228 : प्राकृत व्याकरण से'त' को द्वित्व'त्त की प्राप्ति; १-२२८ से'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निवत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'प्रवर्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पवत्तणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' में स्थित 'र' का-दोनों का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पवत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। 'संवर्तनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संवत्तण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व'त्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'संवत्तण रूप सिद्ध हो जाता है। 'आवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आवत्तओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आवत्तआ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'निवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निवत्तओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निवत्तओ रूप सिद्ध हो जाता है। 'निर्वर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निव्वत्तओं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' पर स्थित 'र' का तथा 'त' पर स्थित 'र' दोनों का-लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व' तथा 'त' का भी द्वित्व 'त्त';-दोनों को द्वित्व की प्राप्ति; १-७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निव्वत्तआ' रूप की सिद्धि हो जाती है। 'प्रवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पवत्तओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' पर स्थित 'र' का-दोनों 'र' का-लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-१७७ से 'क्'का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पवत्तओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'संवर्तकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संवत्तओ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से ''का-लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संवत्तओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वर्तिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वत्तिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'वत्तिा ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वार्तिकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वत्तिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वत्तिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'कार्तिकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कत्तिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से '' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कत्तिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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