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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 229 'उत्कर्तितः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उक्कत्तिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से प्रथम हलन्त ‘त्' का लोप; २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; २ - ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' में से शेष बचे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १ - १७७ से अंतिम 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उक्कत्तिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कर्तरी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कत्तरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र' का लोप और २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर 'कत्तरी' रूप सिद्ध हो जाता है। 'मूर्ति' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुत्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'मुत्ती' रूप सिद्ध हो जाता है। 'मूर्त:' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मुत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। 'मुहूर्त:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुहुत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ८४ से 'हू' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ सें प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुहुत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वार्त्ता' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पट्टा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ३० से संयुक्त व्यञ्जन 'र्त' के स्थान पर 'ट' का आदेश और २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति होकर 'वट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-३०।। वृन्ते ण्टः ।। २-३१। वृन्ते संयुक्तस्य ण्टो भवति || वेष्टं । ताल वेष्टं ॥ अर्थः- वृन्त शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'न्त' के स्थान पर 'ण्ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृन्तम् = वेष्टं और ताल - वृन्तम्-ताल- वेष्टं । । 'वेण्ट' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३९ में की गई है। 'ताल-वेण्ट' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। ।। २-३१।। ठो स्थि-विसंस्थुले ।। २-३२।। अनयोः संयुक्तस्य ठो भवति ।। अट्ठी । विसंठुलं ॥ अर्थः- अस्थि और विसंस्थुल शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:अस्थि:=अट्ठी और विसंस्थुलम् =विसंठुलं ।। 'अस्थिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३२ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्रप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'अट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। 'विसंस्थलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विसंठुलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३२ से संयुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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