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230: प्राकृत व्याकरण
व्यञ्जन 'स्थ्' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विसंतुलं रूप सिद्ध हो जाता है।।२-३२।।
स्त्यान-चतुर्थार्थ वा ॥ २-३३ ।। एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति।। ठीणं थीणं । चउट्ठो । अट्ठो प्रयोजनम्। अत्थो धनम्।।
अर्थः- 'स्त्यान' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त्य' के स्थान पर विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'चतुर्थ' एवं 'अर्थ' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन ' के स्थान पर भी विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्त्यानं-ठीणं अथवा थीण।। चतुर्थः-चउट्ठो अथवा चउत्थो।।
अर्थः- अट्ठो अथवा अत्थो।। संस्कृत शब्द 'अर्थ' के दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ प्रयोजन होता है और दूसरा अर्थ 'धन' होता है। तदनुसार 'प्रयोजन' अर्थ में प्रयुक्त संस्कृत रूप 'अर्थ' का प्राकृत रूप 'अट्ठो' होता है और 'धन' अर्थ में प्रयुक्त संस्कृत रूप 'अर्थ' का प्राकृत रूप 'अत्थो' होता है। यह ध्यान में रखना चाहिये।
ठीणं और थीणं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७४ में की गई है। चउट्ठो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है।
'अर्थ'- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (प्रयोजन अर्थ में) 'अट्ठो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३३ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्थ' के स्थान पर विकल्प से 'ट्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अट्ठो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अर्थ'- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (धन अर्थ में) 'अत्था' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अत्थो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-३३॥
ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे ।। २-३४ ।। उष्ट्रादिवर्जिते ष्टस्य ठो भवति ।। लट्ठी । मुट्ठी । दिट्ठी । सिट्ठी । पुट्ठो । कट्ठ। सुरट्ठा। इ8ो । अणिठें। अनुष्ट्रेष्टासंदष्ट इति किम् । उट्टो । इट्टा चुण्णं व्व। संदट्टो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द उष्ट्र, इष्टा और संदष्ट के अतिरिक्त यदि किसी अन्य संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' रहा हुआ हो तो उस संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- लष्टि; लट्ठी। मुष्टिः-मुट्ठी। दृष्टिः-दिट्टी। सृष्टिः सिट्ठी। पृष्टः-पुट्ठो। कष्टम् कटुं| सुराष्ट्राः=सुरट्ठा। इष्टः इट्ठो और अनिष्टम् अणिठें।।
प्रश्न:- 'उष्ट्र, इष्टा और संदष्ट' में संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' होने पर भी सूत्र संख्या २-३४ के अनुसार 'ष्ट' के स्थान पर प्राप्तव्य 'ठ' का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तर:- क्योंकि 'उष्ट्र', 'इष्टा' और 'संदष्ट' के प्राकृत रूप प्राकृत साहित्य में अन्य स्वरूप वाले पाये जाते हैं; एवं उनके इन स्वरूपों की सिद्धि अन्य सूत्रों से होती है; अतः सूत्र संख्या २-३४ से प्राप्तव्य 'ठ' की प्राप्ति का इन रूपों के लिये निषेध किया गया है। जैसे:-उष्ट्र: उट्टो। इष्टा-चूर्णम् इव इट्टाचुण्णं व्व।। और संदष्ट: संदट्टो।।
लट्ठा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४७ में की गई है। 'मुष्ठिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुट्ठी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'मुट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
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