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दिट्ठी और सिट्टा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२८ में की गई है।
'पृष्ट: ' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पुट्ठो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्टं' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुट्ठो' रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 231
'कष्टम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कट्ठ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कट्ठ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुराष्ट्राः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सुरट्ठा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ट्' को 'ट्' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३- १२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घस्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सुरट्ठा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इष्टः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'इट्ठो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'इट्ठो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अनिष्टम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'अणिट्ठ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; २- ३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर ' 'की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणिट्ठ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उष्ट्रः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष्' का लोप; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इष्टा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इट्टा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष्' का लोप और २-८९ से 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति होकर 'इट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चूर्णम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चुण्णं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घस्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर ‘उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'चुण्णं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्व' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'संदष्ट: ' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'संदट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष् ' का लोप; २-८९ से 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संदट्टों' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-३४॥
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