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232 : प्राकृत व्याकरण
गर्ते डः ।। २-३५ ॥ गर्त शब्दे संयुक्तस्य डो भवति । टापवादः ।। गड्डो। गड्डा।।
अर्थः- 'गर्त शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-३० में विधान किया 'गया है कि 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है; किन्तु इस सूत्र में 'गर्त' शब्द के संबंध में यह विशेष नियम निर्धारित किया गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति नहीं होकर 'ड' की प्राप्ति होती है; अतः इस नियम को सूत्र संख्या २-३० के विधान के लिये अपवाद रूप नियम समझा जाये। उदाहरण इस प्रकार है:-गर्तः गड्डा।। गर्ताः गड्डा।। गड्डो और गड्डा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।। २-३५।। संमर्द-वितर्दि-विच्छे च्छर्दि-कपर्द-मर्दिते र्दस्य ॥२-३६।।
एषु र्दस्य डत्वं भवति।। संमड्डो । विअड्डी । विच्छड्डो ।
छड्डइ। छड्डी । कवड्डो । मड्डिओ संमड्डिओ। अर्थः-'संमर्द', 'वितर्दि, विच्र्छ, च्छर्दि, कपर्द और मर्दित शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती है। जैसे:-संमर्दः संमड्डो। वितर्दि: विअड्डी। विच्र्छः विच्छड्डो। च्छर्दिः छड्डी। कपर्दः कवड्डो। मर्दितः मड्डिओ और संमर्दितः-संमड्डिओ।।
'संमर्दः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संमड्डा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संमड्डा' रूप सिद्ध हो ___वितर्दिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विअड्डी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; २-३६
से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान हस्व स्वर 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर "विअड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विच्र्छः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विच्छड्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विच्छड्डो रूप सिद्ध हो जाता है।
'मुञ्चति'-(छते ?) संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छड्डई होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-९१ से 'मुञ्च्' धातु के स्थान पर 'छड्ड' का आदेश; (अथवा र्छ में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर २-३६ से 'ड्' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'ड्' को 'द्वित्व' 'ड्ड' की प्राप्ति); ४-२३९ से प्राप्त एवं हलन्त 'ड्ड' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' (अथवा 'ते') के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छड्डइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छर्दिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छड्डी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त के स्थान पर दीर्घ होकर 'छड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कपर्दः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कवड्डो'; होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कवड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है।
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