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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 233 'मर्दितः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मड्डिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मडिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'संमर्दितः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'संमड्डिओ' होता है। इसकी सिद्धि उपरोक्त रूप 'मर्दितः मड्डिओ' के समान ही जानना।। २-३६।। गर्दभे वा ।। २-३७॥ गर्दभे र्दस्य डो वा भवति । गड्डहो। गद्दहो।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'गर्दभ' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर विकल्प से 'ड' की प्राप्ति होती है। गर्दभः गड्डहा और गद्दहा।। _ 'गर्दभः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गड्डहो' और 'गद्दहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-३७ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर विकल्प से 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व'ड्ड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गड्डहो' सिद्ध हो जाता है। ____ द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व '६' की प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'गद्दहो' भी सिद्ध हो जाता है। । २-३७। कन्दरिका-भिन्दिपाले ण्डः ।। २-३८ ।। अनयोः संयुक्तस्य ण्डो भवति।। कण्डलिआ। भिण्डिवालो। अर्थः- 'कन्दरिका' और 'भिन्दिपाल' शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'ण्ड' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कन्दरिका कण्डलिआ और भिन्दिपालः भिण्डिवालो।। 'कन्दरिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कण्डलिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'ण्ड' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल' और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'कण्डलिआ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'भिन्दिपाल' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिण्डिवालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'ण्ड' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिण्डिवालो' रूप सिद्ध हो जाता है। स्तब्धे ठ-ढौ ।। २-३९।। स्तब्धे संयुक्तयो यथाक्रमं ठढौ भवतः ।। ठड्डो अर्थ:- 'स्तब्ध' शब्द में दो संयुक्त व्यञ्जन है, एक ‘स्त' है और दूसरा ‘ब्ध' है' इनमें से प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है और दूसरे संयुक्त व्यञ्जन 'ब्ध के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; होती है जैसे:-स्तब्धः-ठड्डो।। 'स्तब्धः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'ठड्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३९ से प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-३९ से द्वितीय संयुक्त व्यञ्जन 'ब्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ढ्ढ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-३९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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