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________________ 234 : प्राकृत व्याकरण दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः ।। २-४०।। एषु संयक्तस्य ढो भवति ।। दड्डो । विअड्डो। वुड्डी। वुड्डो । क्वचिन्न भवति। विद्धकइ-निरूवि।। अर्थः- संस्कृत शब्द दग्ध और विदग्ध में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ग्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से संस्कृत-शब्द वृद्धि और वृद्ध में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर भी 'ढ' की प्राप्ति होती है। जैसे:दग्धः दड्डा। विदग्धः विअड्डो। वृद्धिः वुड्डी। वृद्धः वुड्डो।। कभी-कभी संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- वृद्ध-कवि-निरूपितम् विद्ध-कइ निरूविध यहां पर 'वृद्ध' शब्द का 'वुडू' नहीं होकर 'विद्ध' हुआ है। यों अन्य शब्दों के संबंध में भी जान लेना चाहिये। दडो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१७ में की गई है। "विदग्धः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'विअड्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ग्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ढ्ढ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ढ' को 'इ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विअड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है। वुड्डी और वुड्डा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। विद्ध रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। 'कवि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप होकर 'कइ' रूप सिद्ध हो जाता है। यहाँ पर 'कइ' रूप समास-गत होने से विभक्ति प्रत्यय का लोप हो गया है। 'निरूपितम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'निरूविअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निरूविरूप सिद्ध हो जाता है।। २-४०।। श्रद्धर्द्धि-मूर्धान्त वा ।। २-४१॥ एषु अन्ते वर्तमानस्य संयुक्तस्य ढो वा भवति ।। सड्ढा । सद्धा । इड्डी रिद्धी। मुण्ढा। मुद्धा । अर्द्ध अद्धं ॥ अर्थः- संस्कृत शब्द श्रद्धा, ऋद्धि, मूर्धा और अर्ध में अन्त में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर अथवा 'ई' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति होती है। तदनुसार संस्कृत रूपान्तर से प्राप्त प्राकृत रूपान्तर में इनके दो दो रूप हो जाते हैं। जो कि इस प्रकार हैं:- श्रद्धा-सड्डा अथवा सद्धा।। ऋद्धिः इड्डी अथवा रिद्धि।। मूर्धा-मुण्ढा अथवा मुद्धा और अर्धम् अडूं अथवा अद्ध। 'श्रद्धा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सड्ढा' और 'सद्धा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ड्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सडा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सद्धा की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२ में की गई है। 'ऋद्धिः ' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इड्ढी' और 'रिद्धी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ड्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम 'इड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'रिद्धी' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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