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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 235 'मूधा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुण्ढा' और 'मुद्धा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १-२६ से प्रथम स्वर 'उ' के पश्चात् आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति और १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'ढ' होने से 'ट' वर्ग के पंचमाक्षर रूप 'ण' की प्राप्ति होकर 'मुण्ढा' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप मूद्धा में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति होकर 'मुद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अर्धम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'अ ' और 'अद्ध होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ढ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ड्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'अड्डू सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप अद्ध में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'अद्ध' भी सिद्ध हो जाता है।। २-४१।।
म्नज्ञो र्णः ।। २-४२ ॥ अनयो ो भवति ।। म्न । निण्णं ।। ज्ञ पज्जुण्णो। णाणं । सण्णा । पण्णा। विण्णाण।।
अर्थ:- जिन शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' अथवा 'ज्ञ' होता है; उन संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर अथवा 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'म्न' के उदाहरणः- निम्नम् निण्णं। प्रद्युम्नः पज्जुण्णा। 'ज्ञ' के उदाहरण इस प्रकार है:- ज्ञानम्=णाणं। संज्ञा-सण्णा। प्रज्ञा-पण्णा और विज्ञानम् विण्णाण।।
"निम्नम' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निण्ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति , २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'पण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निण्णं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रद्युम्नः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पज्जुण्णा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'द्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति , २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पज्जुण्णो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ज्ञानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, १-२२८ से प्राप्त 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'णाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'संज्ञा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सण्णा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-३० से अनुस्वार के आगे 'ण' का सद्भाव होने से 'ट' वर्ग के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'ण' की प्राप्ति होकर 'सण्णा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रज्ञा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णा ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-४२ से संयुक्त-व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति होकर 'पण्णा' रूप सिद्ध हो जाता है।
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