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226 : प्राकृत व्याकरण
"पत्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पट्टणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व'ट्ट' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पट्टणं' रूप सिद्ध हो जाता है। कवट्टिओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२२४ में की गई है। ।। २-२९।।
तस्याधृर्तादौ ।। २-३० ।। तस्य टो भवति धूर्तादीन् वर्जयित्वा ।। केवट्टो। वट्टी । जट्टो । पयट्टइ।। वटुलं। राय वट्टय। नट्टई। संवट्टिा अधूर्तादाविति किम्। धुत्तो। कित्ती। वत्ता। आवत्तणं। निवत्तणं। पवत्तणं। संवत्तणं। आवत्तओ। निवत्तओ। निव्वत्तओ। पवत्तओ। संवत्तओ। वत्तिआ। वत्तिओ। कत्तिओ। उक्कत्तिओ। कत्तरी। मुत्ती। मुत्तो। मुहुत्तो।। बहुलाधिकाराद् वट्टा। धूर्त । कीर्ति । वार्ता । आवर्तन। निवर्तन। प्रवर्तन। संवर्तन। आवर्तक। निवर्तक। निर्वर्तक। प्रवर्तक। संवर्तक। वर्तिका। वार्तिक। कार्तिक। उत्कर्तित। कर्तरि। मूर्ति। मूर्त। मुहूर्त इत्यादि।। __ अर्थः- धूर्त आदि कुछ एक शब्दों को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'त रहा हुआ हो तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कैवर्तः केवट्टो। वर्तिः-वट्टी। जतः जट्टो। प्रवर्त्तते-पयट्टइ। वर्तुलम् वटुलं। राज-वर्तकम् राय-वट्टय। नर्तकी-नट्टई। संवर्तित्तम्-संवट्टिी
प्रश्नः- 'धूर्त' आदि शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'त' की उपस्थिति होते हुए भी इस संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर प्राप्त होने योग्य 'ट' का निषेध क्यों किया गया ? अर्थात् 'धूर्त' आदि शब्दों में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तरः- क्योंकि धूर्त आदि अनेक शब्दों में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'र्त' के स्थान पर परम्परा से अन्य विकार-आदेश-आगम-लोप आदि की उपलब्धि पाई जाती है; अतः ऐसे शब्दों की स्थिति इस सूत्र संख्या २-३० से पृथक् ही रक्खी गई है। जैसे:- धूर्तः धुतो। कीर्ति-कित्ती। वार्ता-वत्ता। आवर्तनम् आवत्तणं। निवर्तनम् निवत्तणं। प्रवर्तनम्=पवत्तणं। संवर्तनम् संवत्तणं। आवर्तकः-आवत्तओ। निवर्तकः निवत्तओ। निर्वर्तकः-निव्वत्तओ। प्रवर्तकः पवत्तओ। संवर्तकः-संवत्तओ। वर्तिका-वत्तिआ। वार्तिकः-वत्तिओ। कार्तिकः कत्तिओ। उत्कर्तितः उक्कत्तिओ। कर्तरिः कत्तरी (अथवा कर्तरी:-कत्तरी)। मूर्तिः=मुत्ती। मूर्तः=मुत्तो। और मुहूर्तः=मुहत्तो।। इत्यादि अनेक शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'त' के होने पर भी उनमें सूत्र संख्या २-३० से विधान के अनुसार 'ट' की प्राप्ति नहीं होती है। 'बहुलाधिकार से किसी किसी शब्द में दोनों विधियाँ पाई जाती हैं। जैसे वार्ता का 'वट्टा' और 'वत्ता' दोनों रूप उपलब्ध हैं। यों अन्य शब्दों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये।। _ 'कैवर्तः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'केवट्रो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए'
: २-३० से संयक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'केवट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वट्टी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्र की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'वट्टी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जर्तः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
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