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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 225
'ध्वजः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'झओ' और 'धओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२७ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'झ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'ज्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ि के एकवचन में में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'झओ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'धओ' में २-७९ से 'ब्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'धओ' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-२७।।
इन्धौ झा ।। २-२८॥
इन्धौ धातौ संयुक्तस्य झा इत्यादेशो भवति ॥ समिज्झाइ । विज्झाइ ।।
अर्थः- 'इन्ध' धातु में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्ध' के स्थान पर 'झा' का आदेश होता है । जैसे:- समिन्धते - समिज्झाइ।। विन्धते=विज्झाइ।।
'समिन्धते' अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'समिज्झाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्ध' के स्थान पर 'झा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'झ' को 'ज्' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समिज्झाइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विन्धते' अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्झाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२८ से संयुक्त व्यञ्जन ‘न्ध' के स्थान पर 'झा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' को 'ज्' की प्राप्ति और ३ - १३९ के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विज्झाइ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-२८।।
वृत्त - प्रवृत्त - मृत्तिका - पत्तन - कदर्थिते टः ।। २-२९ ।।
एषु संयुक्तस्य टो भवति ।। वट्टो पयट्टो । मट्टिआ । पट्टणं । कवट्टिओ ॥
अर्थः- वृत्त, प्रवृत्त, मृत्तिका, पत्तन और कदर्थित शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' और 'र्थ' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृत्तः = वट्टो । प्रवृत्तः पयट्टो । मृत्तिका मट्टिआ। पत्तनम्-पट्टणं और कदर्थितः=कवट्टिओ।।
'वृत्तः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रवृत्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पयट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'व्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'व्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति २ - २९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पयट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृत्तिका' संस्कृत रूप है। इस का प्राकृत रूप 'मट्टिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - २९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'मट्टिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
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