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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 129 अयौ वैत् ।। १-१६९ ॥ अयि शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति ।। ए बीहेमि। अइ उम्मत्तिए। वचनादैकारस्यापि प्राकृते प्रयोगः।। अर्थः-'अयि' अव्यय संस्कृत शब्द में आदि स्वर 'अ' और परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन 'यि' के स्थान पर अर्थात् संपूर्ण 'अयि' अव्ययात्मक शब्द के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऐ' की प्राप्ति होती है। जैसे-अयि! बिभेमि-ऐ बीहेमी।। अयि! उन्मत्तिके-अइ उम्मत्तिए।। इस सूत्र में 'अयि' अव्यव के स्थान पर 'ऐ' का आदेश किया गया है। यद्यपि प्राकृत भाषा में 'ऐ' स्वर नहीं होता है; फिर भी इस अव्यव में सम्बोधन रूप वाक्य प्रयोग की स्थति होने से प्राकृत भाषा में 'ऐ' स्वर का प्रयोग किया गया है। अयि संस्कृत अव्यव है। इसके प्राकृत रूप ए और अयि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६९ से 'अयि' के स्थान पर 'ऐ' का आदेश; हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य्' का लोप होने से 'अइ' रूप सिद्ध हो जाता है। बिभेमि संस्कृत क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप बीहेमि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-५३ से भी' संस्कृत धातु के स्थान पर 'बीह' आदेश की प्राप्ति; ४-२३९ से व्यञ्जनान्त धातु में पुरुष-बोधक प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व में 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' का आदेश; और ३-१४१ से वर्तमानकाल में तृतीय पुरुष के अथवा उत्तम पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बीहेमि रूप सिद्ध हो जाता है। उन्मत्तिके संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उन्मत्तिए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'उत्-मत्तिके' संस्कृत मूल रूप होने से 'त्' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; १–१७७ से 'क्' का लोप होकर उन्मत्तिए रूप सिद्ध हो जाता है। ॥१-१६९।। ओत्पूतर-बदर-नवमालिका-नवफलिका-पूगफले।। १-१७०।। पूतरादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् भवति ।। पोरो। बोरं। बोरी। नोमालिआ। नोहलिया। पोप्फल। पोप्फली।। अर्थः-पूतर; बदर; नवमालिका; नवफलिका और पूगफल इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर के साथ परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:-पूतर:=पोरो; बदरम्=बोरं; बदरी-बोरी; नवमालिका नोमालियाः; नवफलिका नोहलिआ; पूगफलम्=पोप्फलं और पूगफली-पोप्फली।। पूतरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति अर्थात् 'पूत' के स्थान पर 'पो' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पोरो रूप सिद्ध हो जाता है। बदरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बोरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; अर्थात् 'बद' के स्थान पर 'बो' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर बोरं रूप सिद्ध हो जाता है। बदरी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बोरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; अर्थात् 'बद' के स्थान पर 'बो' की प्राप्ति; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर बोरी रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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