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130: प्राकृत व्याकरण
नवमालिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोमालिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति); १-१७७ से 'क्' का लोप; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोमालिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
नवफलिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोहलिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति); १-२३६ से 'फ' का 'ह'; १-१७७ से 'क्' का लोप; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोहलिआ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पूगफलम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोप्फलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ग' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राप्ति); २-८९ से 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर पोप्फल रूप सिद्ध हो जाता है। - पूगफली संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोप्फली होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ग' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राप्ति); २-८९ से 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; संस्कृत विधान के अनुस्वार स्त्रीलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इसमें 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से 'स्' का लोप होकर पोप्फली रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१७०।। न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकुमार
कुतूहलोदूखलोलूखले ।। १-१७१ ।। मयूखादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् वा भवति।। मोहो मऊहो। लोणं। इअ लवणुग्गमा। चोग्गुणो। चउग्गुणो। चोत्थो चउत्थो। चोत्थी चउत्थी।। चोद्दह। चउद्दह।। चोदसी चउद्दसी। चोव्वारो चउव्वारो। सोमालो सुकुमालो। कोहलं कोउहल्लं। तह मन्ने कोहलिए। ओहलो उऊहलो। ओक्खलं। उलूहल।। मोरो मऊरो इति तु मोर-मयूर शब्दाभ्यां सिद्धम्॥
अर्थः-मयूख; लवण; लवणोद्गमा, चतुर्गुण, चतुर्थ, चतुर्थी, चतुर्दश, चतुर्दशी, चतुर्वार, सुकुमार, कुतूहल, कुतूहलिका और उदूखल, इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर का परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ विकल्प से 'ओ' होता है। जैसे-मयूखः मोहो और मऊहो। लवणम् लोणं और लवणं। चतुर्गुणः चोग्गुणो और चउग्गुणो। चतुर्थः-चोत्थो और चउत्थो। चतुर्थी-चोत्थी और चउत्थी। चतुर्दशः चोधहो और चउधहो। चतुर्दशी-चोधसी और चउधसी। चतुर्वारः चोव्वारो और चउव्वारो। सुकुमार:=सोमालो और सुकुमालो। कुतूहलम् कोहलं और कोउहल्लं। कुतूहलिके-कोहलिए और कुऊहलिए। उदूखलः ओहलो और उऊहलो। उलूखलम्=ओक्खलं और उलूहलं। इत्यादि।। प्राकृत शब्द मोरो
और मऊरो संस्कृत शब्द मोरः और मयूरः इन अलग अलग शब्दों से रूपान्तरित हुए है; अतः इन शब्दों में सूत्र-संख्या १-१७१ का विधान नहीं होता है। __ मयूखः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप मोहो और मऊहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'य' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात 'अय' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मोहो सिद्ध हो जाता है।
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