________________
128 : प्राकृत व्याकरण
प्रसून संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पसूण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर पसूण रूप सिद्ध हो जाता है।
पुञ्जाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुजा होता हैं। इसमें सूत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और इसका लोप तथा ३-१२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं इसके लोप होने से पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' का 'आ' होकर पुञ्जा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अयस्कारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एक्कारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६६ से 'अय' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एक्कारो रूप सिद्ध हो जाता है। ।।१-१६६।।
वा कदले ॥१-१६७ ॥ कदल शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर-व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति।। केलं कयल। केली कयली।।
अर्थ:-कदल शब्द में रहे हुए आदि स्वर 'अ' को परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे-कदलम् केलं और कयल।। कदली केली और कयली।।
कदलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केलं और कयलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६७ से 'कद्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप केलं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कयल) में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। इस प्रकार कयलं रूप भी सिद्ध हो जाता है। ___ कदली संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केली और कयली होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६७ से 'कद' के स्थान पर 'के की प्राप्ति: संस्कत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; और प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत् संज्ञा; तथा १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर प्रथम रूप केली सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कयली) में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-८० से शेष 'अ' का 'य' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना।। इस प्रकार कयली रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।।१-१६७||
वेतः कर्णिकारे ।। १-१६८ ।। कर्णिकारे इतः सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति।। कण्णेरो कण्णिआरो।।
अर्थः-कर्णिकार शब्द में रही हुई 'इ' के स्थान पर पर-वर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे-कर्णिकारः कण्णेरो और कण्णिआरो।। ___कर्णिकारः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कण्णेरा और कण्णिआरो होते हैं। इनमें से प्रथम में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; १-१६८ से वैकल्पिक रूप से 'इ' सहित 'का' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति: और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम कण्णेरो रूप सिद्ध हो जाता है। ___द्वितीय रूप (कण्णिआरो) में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; १–१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कण्णिआरो रूप भी सिद्ध हो जाता है।।१-६८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org