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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 127
एत त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वर व्यञ्जनेन।। १-१६५ ॥ त्रयोदश इत्येवंप्रकारेषु संख्या शब्देषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरेण व्यञ्जनेन सहः एद् भवति।। तेरह। तेवीसा। तेतीसा।। ___अर्थः-त्रयोदश इत्यादि इस प्रकार के संख्या वाचक शब्दों में आदि में रहे हुए 'स्वर' का परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ 'ए' हो जाता है। जैसे-त्रयोदश-तेरह; त्रयोविंशतिः-तेवीसा और त्रयस्त्रिंशत् तेतीसा। इत्यादि।।
त्रयोदश संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेरह होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; १-२१९ से 'द' के स्थान पर 'र' का आदेश; और १-२६२ से 'श' के स्थान पर 'ह' का आदेश होकर तेरह रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रयोविशति संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेवीसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित '' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; १-२८ से अनुस्वार का लोप; १-९२ से हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और इसी सूत्र से 'ति' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'अ' का 'आ'; और ३-४ से प्राप्त् 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेवीसा रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रयस्त्रिंशत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तेत्तीसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'य' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७९ से द्वितीय 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-९२ से हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'अ' का 'आ'; और ३-४ से प्राप्त् ‘जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेत्तीसा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१६५।।
स्थविर-विचकिलायस्कारे ।। १-१६६।। एषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् भवति।। थेरो वेइल्लं। मुद्ध-विअइल्ल-पसूण पुजा इत्यपि दृश्यते। एक्कारो॥
अर्थः-स्थविर, विचकिल और अयस्कार इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर को पर-वर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ 'ए' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-स्थविरः-थेरो; विचकिलम् = वेइल्लं; अयस्कारः= एक्कारो।। मुग्ध-विचकिल-प्रसून-पुजाः मुद्ध-विअइल्ल-पसूण-पुञ्जा इत्यादि उदाहरणों में इस सूत्र का अपवाद भी अर्थात् आदि स्वर को परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ 'ए' की प्राप्ति' का अभाव भी देखा जाता है।
स्थविरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप थेरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१६६ से 'थवि' का 'थे'; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के साथ 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थेरो रूप सिद्ध हो जाता है।
विचकिलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेइल्लं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६६ से 'विच' का 'वे'; १-१७७ से 'क्' का लोप; २-९८ से 'ल' का द्वित्व 'लल्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वेइल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। __मुग्ध संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मुद्ध होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से 'ध' का द्वित्व ध्ध'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' का 'द्' होकर मुद्ध रूप सिद्ध हो जाता है।
विचकिल संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विअइल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च्' और 'क्' का लोप; और २-९८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर विअइल्ल रूप सिद्ध हो जाता है।
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