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________________ 126 : प्राकृत व्याकरण सौधम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सउहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश; १-१८७ से 'ध' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सउहं रूप सिद्ध हो जाता है। __गौडः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गउडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गउडो रुप सिद्ध हो जाता है। मौलिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मउली होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर मउली रुप सिद्ध हो जाता है। मौनम्: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मउणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर मउणं रूप सिद्ध हो जाता है। सौराः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सउरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' की आदेश प्राप्ति; ३-४० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप १२ से प्राप्त और लुप्त जस् प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर सउरा रूप सिद्ध हो जाता है। __कौलाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउला होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' की आदेश प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप; ३-१२ से प्राप्त और लुप्त जस् प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ का दीर्घ स्वर 'आ' होकर कउला रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१६२।। आच्च गौरवे ।। १-१६३।। गौरव शब्दे औत आत्वम् अउश्च भवति।। गारवं गउरवं।। अर्थः-गौरव शब्द में रहे हुए औ' के स्थान पर क्रम से 'आ' अथवा 'अउ' की प्राप्ति होती है। जैसे-गौरवम् गारवं और गउरव।। गौरवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप गारवं और गउरवं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६३ से क्रमिक पक्ष होने से से'औ के स्थान पर 'आ' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' प्रत्यय का अनस्वार होकर गारवं रूप सिद्ध हो जाता है।। द्वितीय रूप (गउरवं) में सूत्र-संख्या १-१६३ से ही क्रमिक पक्ष होने से औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। इस प्रकार द्वितीय रूप गउरवं भी सिद्ध हो जाता है।।१-१६३।। नाव्यावः ॥१-१६४ ।। नौ शब्दे औत आवादेशो भवति।। नावा ।। अर्थः-नौ शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'आव' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-नौ-नावा।। नौ संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नावा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६४ से 'औ' के स्थान पर 'आव' आदेश की प्राप्ति; १-१५ स्त्रीलिंग रूप-रचना में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्त्य व्यञ्जन 'स्' का लोप; होकर नावा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१६४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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