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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 125
कौक्षेयके वा ॥ १-१६१ ।। कौक्षेयक शब्दे औत उद् वा भवति।। कुच्छेअयं। कोच्छेअयं।। अर्थः-कौक्षेयक शब्द में रहे हुए औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे-कौक्षेयकम् कुच्छेअयं और कोच्छेअयं।। __ कौक्षेयकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कुच्छेअयं और कोच्छेअयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६१ से वैकल्पिक रूप से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; १-१७७ से 'य्' और 'क्' का लोप; १-१८० से शेष अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कुच्छेअयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कोच्छेअयं) में सूत्र-संख्या १-१५९ से औ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों कोच्छअयं रूप सिद्ध हुआ।।१-१६१ ।।
अउः पौरादो च ।। १-१६२ ।। कौक्षेयके पौरादिषु च औत अउरादेशो भवति।। कउच्छेअयं।। पौरः। पउरो। पउर-जणो।। कौरवः। कउरवो।। कौशलम्। कउसलं। पौरूषम्। पउरिसं। सौवम्। सउहं।। गौडः। गउडो।। मौलिः। मउली। मौनम्। मउण।। सौराः। सउरा।। कौलाः। कउला। ___ अर्थः-कौक्षेयक; पौर-जन; कौरव; कौशल; पौरूष; सौध; गौड और कौल इत्यादि शब्दों में रहे हुए औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश होता है। जैसे-कौक्षेयकम् कउच्छेअयं; पौर:=पउरो; पौर-जनः पउर-जणो; कौरवः कउरवो; कौशलम् कउसलं; पौरूषम्=पउरिसं; सौधम् सउहं; गौडः=गउडो; मौलि:=मउली; मौनम् मउणं; सौराः सउरा और कौलाः कउला इत्यादि।।
कौक्षेयकम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउच्छेअयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और शेष-सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६१ में लिखित नियमानुसार जानना। यों कउच्छेअयं रूप सिद्ध होता है।
पौरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पउरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउरो रुप सिद्ध हो जाता है।
पार-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पउर-जणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउर-जणो रुप सिद्ध हो जाता है।
कौरवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउरवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कउरवो रुप सिद्ध हो जाता है। __ कौशलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउसलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर कउसलं रूप सिद्ध हो जाता है।
पउरिसं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१११ में की गई है।
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