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140 : प्राकृत व्याकरण
'आ' को 'या' की प्राप्ति; संस्कृत विधान के अनुस्वार प्रथमा विभक्ति के एकवचन आकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्त्य 'स'का लोप होकर गया रूप सिद्ध होज __ मदनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मयणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयणो रूप सिद्ध हो जाता है।
रिपुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रिऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन उकारान्त पुल्लिंग में। सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर रिऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
सुउरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
दयालु; संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दयालू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; १-१८० से रोष 'आ' को 'या' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को 'ऊ' की प्राप्ति होकर दयालु रूप सिद्ध हो जाता है।
नयनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनस्वार होकर नयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
वियोगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विओओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' और 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विओआ रूप सिद्ध हो जाता है। __लावण्यम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लायण्णं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' और 'य' का लोप; १-१८० से लुप्त 'व्' के अवशिष्ट 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-८९ से 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर लायण्णं रूप सिद्ध हो जाता है।
विबुधः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विउहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३७ से 'ब' को 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'व्' का लोप; १-१८७ से 'ध्' को 'ह' की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विउहो रूप सिद्ध हो जाता है। __ वडवानलः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वलयाणलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से 'ड' को 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व्' का लोप; १-१८० से लुप्त द्वितीय 'व्' में से अवशिष्ट 'अ' को 'य् की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वलयाणला रूप सिद्ध हो जाता है।
रूप है। इसका प्राकत रूप सकसम होता है। इसमें सत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर सुकुसुमं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रयाग जलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पयागजलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर पयागजलं रूप सिद्ध हो जाता है।
सुगतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुगओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और
सुकुसुम
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