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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 139 शकटम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सयढं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'श' का 'स'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - १९६ से 'ट' को 'ढ' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंगलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सयढं रूप सिद्ध हो जाता है।
नगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नआ रूप सिद्ध हो जाता है।
नगरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'ग' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नयरं रूप सिद्ध हो जाता है।
मङ्को रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-३० में की गई है।
शची संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सई होता है। इसमे सूत्र - संख्या १- ६० से 'श' का स; १ - १७७ से 'च्' का लोप; और संस्कृत-विधान के अनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारांत स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इसमें अन्त्य 'इ' की इत्संज्ञा और १ - ११ से शेष 'स्' का लोप होकर सई रूप सिद्ध हो जाता है।
कचग्रहः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कयग्गहो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च' का लोप; १ - १८० से 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २ - ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयग्गहो रूप सिद्ध हो जाता है।
रजतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रययं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'ज्' और 'त्' का लोप; १-१८० से शेष दोनों 'अ' 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग मे 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रययं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रजापतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पयावइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से 'ज्' और 'त्' का लोप; १ - १८० से लुप्त 'ज्' के अवशिष्ट 'आ' को 'या' की प्राप्ति; १ - २३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व ईकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पयावई रूप सिद्ध हो जाता है।
गजः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज्' का लोप; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गओ रूप सिद्ध हो जाता है।
वितानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विआणं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - २२८ से 'न' का 'ण' ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विआणं रूप सिद्ध हो जाता है।
रसातलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रसायलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रसायलं रूप सिद्ध हो जाता है।
यतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २४५ से 'य' का 'ज'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारन्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर जई रूप सिद्ध हो जाता है।
गदाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गया होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १- १८० से शेष
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