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________________ 138 : प्राकृत व्याकरण प्रश्नः-'असंयुक्त' याने पूर्ण - ( हलन्त नहीं ) - ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः यदि ‘क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' हलन्त हैं; याने स्वरान्त रूप से नहीं हैं और अन्य वर्ण में संयुक्त रूप से स्थित हैं; तो इनका लोप नहीं होता है। जैसे- 'क' का उदाहरणः- अर्क:-अक्को । 'ग्' का उदाहरणः-वर्गः=वग्गो। ‘च्' का उदाहरणः-अर्च:- अच्चो । 'ज्' का उदाहरण:- वज्रम् वज्जं । 'त्' का उदाहरण: - धूर्तः धुत्तो। 'द्' का उदाहरणः=उद्दामः-उद्दामो । 'प्' का उदाहरणः - विप्रः- विप्पो । य् का उदहारणः-कार्यम्=कज्जं । और 'व्' का उदाहरणः--सर्वम्=सव्वं इत्यादि । । किन्हीं किन्हीं शब्दों में सयुक्त रूप से रहे हुए 'क्' 'ग्' आदि का लोप भी देखा जाता है। जैसे-नक्तं चरः=नक्कं चरो। यहां पर संयुक्त 'त्' का लोप हो गया है। प्रश्न :- ‘अनादि रूप से रहे हों' अर्थात् शब्द के आदि में नहीं रहे हुए हों; ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर :- यदि ‘क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' वर्ण किसी भी शब्द के आदि भाग में रहे हुए हों तो इनका लोप नहीं होता है । जैसे- 'क' का उदाहरण :- कालः कालः = कालो। 'ग' का उदाहरण :- गन्धः - गन्धो । 'च' का उदाहरणःचोरः = चोरो । 'ज' का उदाहरण: - जार:- जारो । 'त' का उदाहरणः तरुः = तरू । 'द' का उदाहरण:- दवः- दवो । 'प' का उदाहरण:- पापम्=पावम् । 'व' का उदाहरण:- वर्ण:- वण्णो ।। इत्यादि । । शब्द में आदि रूप से स्थित 'य' का उदाहरण इस कारण से नहीं दिया गया है कि शब्द के आदि में स्थित 'य' का 'ज' हुआ करता है। इसका उल्लेख आगे सूत्र संख्या १ - २४५ में किया जाएगा; समासगत शब्दों में वाक्य और विभक्ति अपेक्षा से पदों की गणना अर्थात् शब्दों की मान्यता पृथक् पृथक भी मानी जा सकती है; और इसी बात का समर्थन आगे भी किया जायगा; तदनुसार न समास गत शब्दों में स्थित 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' का लोप होता है और नहीं भी होता है। दोनों प्रकार की स्थिति देखी जाती है। जैसे- 'क' का उदाहरणः - सुखकर :- सुहकरो अथवा सुहयरो । 'ग' का उदाहरणः- आगमिकः= अगामिओ अथवा आयमिओ । 'च' का उदाहरण, जलचर:- जलचरो अथवा जलयरो 'त' का उदाहरणः- बहुतरः=बहुतरो अथवा बहुअरो । 'द' का उदाहरण:- सुखदः = पुहदो अथवा सुहओ।। इत्यादि।। किन्हीं-किन्हीं शब्दों में यदि 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' आदि में स्थित हों तो भी उनका लोप होता हुआ देखा जाता है। जैसे- 'प' का उदाहरणः स पुनः स उण ।। 'च' का उदाहराणः- स च = सो अ|| चिह्नम् = इन्धं ।। इत्यादि।। किसी-किसी शब्द में ‘च' का 'ज' होता हुआ भी पाया जाता है। जैसे- पिशाची = पिसाजी । । किन्हीं - किन्हीं शब्दों में 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे- एकत्वम् - एगत्तं । । एकः = एगो ।। अमुकः = अमुगो ।। असुक:- असुगो ।। श्रावकः-सावगो।। आकारः- आगारो। तीर्थंकर; - तित्थगरो ।। आकर्षः आगरिसो।। लोकस्य उद्योतकराः = लोगस्स उज्जो अगरा ।। इत्यादि शब्दों में 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। इसे व्यत्यय भी कहा जाता है । व्यत्यय का तात्पर्य है-वर्गों का परस्पर में एक के स्थान पर दूसरे की प्राप्ति हो जाना; जैसे- 'क' के स्थान पर 'ग' का होना और 'ग' के स्थान पर 'क' का हो जाना। इसका विशेष वर्णन सूत्र संख्या ४-४४७ में किया गया है। आर्ष प्राकृत में वर्णों का अव्यवस्थित परिवर्तन अथवा अव्यवस्थित वर्ण आदेश भी देखा जाता है। जैसे आकुञ्चनम् = आउण्टणं । इस उदाहरण में 'च' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति हुई है । यों अन्य आर्ष-रूपों में समझ लेना चाहिये। तीर्थंकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्थयरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; २-७९ से 'थ' का द्वित्व ' थ्थ; २- ९० से प्राप्त पूर्व 'थ्'' का 'त्'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तित्थयरो रूप सिद्ध हो जाता है। लोकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोओ रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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