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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 137 उनके संबंध में यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि लोप और आदेश आदि प्रक्रियाओं से संबंध रखने वाले वे वर्ण किसी भी स्वर के पश्चात्वर्ती हो; असंयुक्त हो अर्थात् हलन्त न होकर स्वरान्त हों और आदि में भी स्थित न हों। स्वर से परवर्ती; असंयुक्त हो अर्थात् हलन्त न होकर स्वरान्त हों और आदि में भी स्थित न हों। स्वर से परवर्ती; असंयुक्त और अनादि ऐसे वर्णो के संबंध में ही आगे के सूत्रों द्वारा लोप और आदेश आदि प्रक्रियाओं की दृष्टि से विधान किया जाने वाला है। यही सूचना, संकेत और विधान इस सूत्र में किया गया है। अतः वृत्ति में इसको 'अधिकार-वाचक' सूत्र की संज्ञा प्रदान की गई है जो कि ध्यान में रक्खी जानी चाहिये।।१-१७६।। क-ग-च-ज-त-द-प-य-वा प्रायो लुक्॥१-१७७॥ स्वरात्पषामनादिभूतानामसंयुक्तानां क ग च ज त द प य वा नां प्रायो लुग भवति।। क। तित्थयरो। लोओ। सयद।। ग। नओ। नयरं मयको।। च। सई। कय-ग्गहो। जा रययं। पयावई। गओ। त। विआणं। रसा-यला जई। दो गया। मयणो।। पारिऊ। सुउरिसो।। या दयालू। नयण। विओओ।। वा लायण्णां विउहो। वलयाणलो।। प्रायो ग्रहणात् क्वचिन्न भवति। सुकुसुमं। पयाग जलं। सुगओ। अगरू। सचावं। विजणं। सुतारं। विदुरो। सपावं। समवाओ। देवो। दाणवो। स्वरादित्येव। संकरो। संगमो। नक्कंचरो। धणंजओ। विसंतवो। पुरंदरो। संवुडो। संवरो॥ असंयुक्तस्येत्येव। अक्को। वग्गो। अच्चो। ज्जा धुत्तो। उद्दामो। विप्पो। कज्जी सव्व।। क्वचित् संयुक्तस्यापि। नक्तंचरः नक्कंचरो।। अनादेरित्येव। कालो। गन्धो। चोरो। जारो। तरू। दवो। पावं। वण्णो॥ यकारस्य तु जत्वम् आदौ बक्ष्यते। समासे-तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया भिन्न पदत्वमपि विवक्ष्यते। तेन तत्र यथादर्शनसुभयमपि भवति। सुहकरो सुहयरो आगमिओ आयमिओ। जलचरो जलयरो। बहुतरो बहुअरो। सुहदो। सुहओ। इत्यादि।। क्वचिदादेरपि। स पुनः स उण। स च-सो || चिह्न-इन्छ।। क्वचिच्चस्य जः। पिशाची। पिसाजी।। एकत्वम् एगत्त।। एकः= एगो।। अमुकः= अमुगो।। असुकः असुगो।। श्रावकः सावगो।। आगारः आकारो।। तीर्थंकरः-तित्थगरो।। आकर्षः= आगरिसो।। लोगस्सुज्जोअगरा इत्यादिषु तु व्यत्ययश्च (४-४४७) इत्येव कस्य गत्वम्।। आर्षे अन्यदपि द्दश्यते। आकुञ्चनं-आउण्टणं।। अन्न चस्य टत्वम्॥ __ अर्थः-यदि किसी भी शब्द में स्वर के पश्चात् क; ग; च; त; द; प; य और व अनादि रूप से-(याने आदि में नहीं) और असंयुक्त रूप से (याने हलन्त रूप से नहीं) रहे हुए हों तो उनका प्रायः अर्थात् बहुत करके लोप हो जाता है। जैसे-'क' के उदाहरणः-तीर्थंकरः-तित्थयरो। लोकः लोओ। शकटम् सयढं। 'ग' के उदाहरणः=नगः नओ। नगरम्=नयरं। मृगांक:-मयको।। 'च' के उदाहरणः-शची-सई। कचग्रहःकयग्गहो। 'ज' के उदाहरणः-रजतम्=रययं। प्रजापतिः पयावई गजः-गओ। 'त' के उदाहरणः-विताणं-विआणं। रसातलम् रसायल। यतिः जई।। 'द' के उदाहरण:-गदा-गया। मदनः मयणो। 'प' के उदाहरणः-रिपुः रिऊ। सुपुरुषः सुउरिसो।। 'य' के उदाहरणः-दयालुः दयालू। नयनम् नयणं। वियोगः-विओओ।। 'व' के उदाहरण:-लावण्यम्-लायण्णं। विबुधः विउहो वडवानलः-वलयाणलो।। ___ 'सूत्र में प्रायः' अव्यय का ग्रहण किया गया है। जिसका तात्पर्य यह है कि बहुत करके लोप होता है; तदनुसार किन्हीं किन्हीं शब्दों में क, ग, ज, त, प, य और व का लोप नहीं भी होता है। जैसे-'क' का उदाहरणः-सुकुसुमं सुकुसुमं 'ग' के उदाहरण प्रयाग जलम् पयाग जलं। सुगतः-सुगओ। अगुरु:-अगुरु। 'च' का उदाहरणः-सचापम्स चावं। 'ज' का उदाहरण:-व्यजनम् विजणं। 'त'का उदाहरणः-सुतारम् सुतारं। 'द' का उदाहरणः-विदुरः विदुरो। 'प' का उदाहरण:-सपापम् सपावं। 'व' के उदाहरणः-समवायः समवाओ। देवः-देवो। और दानवः दाणवो।। इत्यादि।। प्रश्न-'स्वर के परवर्ती हों-ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तरः-यदि 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व, स्वर के परवर्ती अर्थात् स्वर के बाद में रहे हुए नहीं हो तो उनका लोप नहीं होता है। जैसे-'क' का उदाहरणः-शंकरः-संकरो। 'ग' का उदाहरण:-संगमः-संगमो। 'च' का उदाहरण:-नक्तंचरः नक्कंचरो। 'ज' का उदाहरण:-धनंजयः धणंजओ। 'त' का उदाहरणः-द्विषतपः विसंतवो। 'द' का उदाहरणः-पुरंदरः पुरंदरो। 'व' के उदाहरण:- संवृतः संवुडो और संवरः-संवरो।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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