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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 283 व्यत्यय; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'नाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
क्रियाहीनम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'किया-हीणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किया-हीणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दिष्टया' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'दिट्रिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; २-१०४ से प्राप्त '8' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'य' का लोप होकर 'दिट्ठिआ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०४।।
र्श-र्ष-तप्त-वज्रे वा ।। २-१०५।। शर्षयोस्तप्तवज्रयोश्च संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात पूर्व इकारो वा भवति।। र्श। आयरिसो आयसो। सुदरिसणो सुदंसणो। दरिसणं दंसणं।। र्ष। वरिसं वास। वरिसा वासा। वरिस-सयं वास-सय।। व्यवस्थित-विभाषया क्वचिनित्यम्। परामरिसो। हरिसो। अमरिसो।। तप्त। तविओ तत्तो।। वज्रम्वरं वज्ज।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'र्श' और 'र्ष' हो; ऐसे शब्दों में इन 'र्श' और 'र्ष' संयुक्त व्यञ्जनों में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'इ'की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तप्त' और 'वज्र' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'प्' अथवा 'ज्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। 'र्श के उदाहरणः जैसे:- आदर्श: आयरिसो अथवा आयंसो।। सदर्शनः सदरिसणो अथवा सदसणो।। दर्शनम् दरिसणं अथवा दंसणं।। 'र्ष' के उदाहरण; जैसे:- वर्षम् वरिसं अथवा वासं।। वर्षा वरिसा अथवा वासा।। वर्ष-शतम् वरिस-सयं अथवा वास-सयं।। इत्यादि।। व्यवस्थित-विभाषा से अर्थात् नियमानुसार किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन '' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नित्य रूप से भी होती है। जैसे:-परामर्षः परामरिसो।। हषः हरिसो और अमर्षः अमरिसो।। सूत्रस्थ शेष उदाहरण इस प्रकार है:-तप्तः-तविओ अथवा तत्तो।। वज्रम्=वइरं अथवा वज्ज।। ___ 'आदर्शः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आयरिसो' और 'आयसो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-१०५ से हलन्त 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'आयरिसो' सिद्ध हो जाता है। __द्वितीय रूप- (आदर्शः=) 'आयसो' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में शेष रहे हुए 'अ'को 'य' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'य' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'आयसो' भी सिद्ध हो जाता है।
'सुदर्शनः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुदरिसणो' और 'सुदंसणो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सुदरिसणा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(सुदर्शनः=) सुदंसणो में सूत्र संख्या १-२६ से 'द' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से ' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२२८ से'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन
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