________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 47 _ 'रश्मि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'रस्सी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप; १-२६० से 'श्' का 'स'; २-८९ से 'स्' का द्वित्व 'स्स'; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का 'ई' होकर 'रस्सी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ग्रन्थिः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'गण्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१२० से ग्रथि के स्थान पर गण्ठि आदेश होता है। १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का दीर्घ 'ई' होकर 'गण्ठी रूप सिद्ध हो जाता है।
__ 'गर्ता' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'गड्डा' और 'गड्डो' बनते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-३५ से संयुक्त 'त्' का 'ड'; २-८९ से प्राप्त 'ड' का द्वित्व 'ड्ड'; १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; सिद्ध हेम व्या० के सूत्र २-४-१८ से 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गड्डा' रूप सिद्ध हो जाता है और पुल्लिंग होने पर प्रथमा एकवचन में ३-२ से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'गड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३५।।
बाहोरात् ॥ १-३६ ॥ बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति।। बाहाए जेण धरिओ एक्काए।। स्त्रियामित्येव। वामेअरो बाहू॥
अर्थः-'बाहु' शब्द के स्त्रीलिंग रूप में अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'आ' आदेश होता है। जैसे बाहु का 'बाहा' यह रूप स्त्रीलिंग में ही होता है और पुल्लिंग में 'बाहु' का 'बाहु' ही रहता है।
'बाहुना' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बाहाए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३६ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; और अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'आ' का आदेश; ३-२९ से तृतीया के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'बाहाए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'येन' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'जेण' होता है। संस्कृत मूल शब्द 'यत्' है; इसमें १-११ से 'त्' का लोप; १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-१४ से प्राप्त 'ज' में स्थित 'अ' का 'ए' होकर 'जेण' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'धृत' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'धरिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३४ से'ऋ' का 'अर्'; ४-२३९ से हलन्त 'र' में 'अ'का आगम; सिद्ध हेम व्याकरण के ४-३२ से 'त' प्रत्यय के होने पर पूर्व में 'इ' का आगम; १-१० से प्राप्त 'इके पहिले रहे हए 'अ'का लोप: १-१७० से 'त' का लोप: ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'धरिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एकेन' संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप स्त्रीलिंग में 'एक्काए' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९९ से 'क' का द्वित्व'क्क ', सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से स्त्रीलिंग में अकारान्त का 'आकारान्त'; और ३-२९ से तृतीया के एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एक्काए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वामेतरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वामेअरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'वामेअरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बाहुः संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप 'बाहू' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'विसर्ग' का लोप होकर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ होकर 'बाहू' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-३६।।
अतो डो विसर्गस्य ॥ १-३७॥ __संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परस्य विसर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति। सर्वतः। सव्वओ।। पुरतः। पुरओ।। अग्रतः। अग्गओ।। मार्गतः। मग्गओ।। एवं सिद्धावस्थापेक्षया। भवतः। भवओ। भवन्तः।। भवन्तो।। सन्तः। सन्तो।। कुतः। कुदो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org