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48 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः-संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्राप्त हुए 'अः' में स्थित विसर्ग के स्थान पर 'डो' अर्थात् 'ओ' आदेश हुआ करता है। जैसे-'सर्वतः' में 'सव्वओ'। यों आगे के शेष उदाहरण 'मार्गतः' में मग्गओ तक जान लेना। अन्य प्रत्ययों से सिद्ध होने वाले शब्दों में भी यदि 'अः प्राप्त हो जाय; तो उस अः' में स्थित विसर्ग के स्थान पर 'डो' अर्थात 'ओ' आदेश हुआ करता है। जैसे-'भवतः' में 'भवओ'। 'भवन्तः' में 'भवन्तो'। यों ही 'सन्तो' और 'कुदो' भी समझ लेना।
'सर्वतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सव्वओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' का आदेश होकर 'सव्वओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुरतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पुरओ' है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप, १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'पुरओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
अग्रतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अग्गओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७२ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'अग्गओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मार्गतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकत रूप 'मग्गओ' होता है। इसमें सत्र संख्या १-८४ से 'मा' के 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'मग्गओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भवतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भवओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'भवओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भवन्तः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भवन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'भवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सन्तः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'सन्तो' रूप सिद्ध हो जाता हैं।
'कुतः संस्कृत शब्द है। इसका शैरसेनी भाषा में 'कुदो रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२६० से 'त' का 'द'; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'कुदो रूप सिद्ध हो जाता है।१-३७।।
निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा ॥१-३८।। निर् प्रति इत्येतो माल्य शब्दे स्थाधातौ च परे यथासंख्यम् ओत् परि इत्येवं रूपो वा भवतः। अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः। ओमाला निम्मल्लं।। ओमालयं वहइ। परिट्ठा। पइट्ठा। परिट्ठिअं पइट्ठि। ___ अर्थः-'माल्य' शब्द के साथ में यदि निर् उपसर्ग आवे तो निर् उपसर्ग के स्थान पर आदेश रूप से विकल्प से 'ओ' होता है। तथा स्था धातु के साथ में यदि 'प्रति' उपसर्ग आवे तो 'प्रति' उपसर्ग के स्थान पर आदेश रूप से विकल्प से 'परि' होता है। इस सूत्र में दो उपसर्गों की जो बात एक ही साथ कही गई है। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण उपसर्ग के स्थान पर आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-निर्माल्यम् का 'ओमालं' और 'निम्मल्लं'। प्रतिष्ठा का 'परिट्ठा' और 'पइट्ठा' 'प्रतिष्ठितम्' का 'परिट्ठिअं' और 'पइट्ठि। ___ निर्माल्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'ओमालं' और 'निम्मल्लं' दोनों होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से विकल्प से 'निर्' का 'ओ'; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'ओमाल रूप सिद्ध होता है। द्वितीय रूप में १-८४ से 'मा' में स्थित 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल';
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