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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 49 ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'निम्मल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ "निर्माल्यकम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'ओमालयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से (विकल्प से) 'निर्' का 'ओ'; २-७८ से 'य' का लोप; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से 'क' के 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'ओमालयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'वहति' संस्कृत धातु रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वहई' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर 'वहइ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'प्रतिष्ठा' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'परिटा' और 'पट्टा' होते है। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से 'प्रति' के स्थान
से 'परि आदेशः २-७७ से'ष' का लोप: २-८९ से'ठ' का द्वित्व'ठठ': २-९० से प्राप्त पर्व'ठ'का'ट' सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'आ' की प्राप्ति होकर 'परिहा' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में जहां 'परि' आदेश नहीं होगा; वहां पर सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से '' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट्'; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'आ' की प्राप्ति होकर 'पइट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है। __'प्रतिष्ठितम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'परिट्रिअं और 'पइट्ठिअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से विकल्प से 'प्रति' के स्थान पर 'परि' आदेश; २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से 'ठ्' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'परिट्रिअं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में जहां परि' आदेश नहीं होगा; वहां 'पइट्ठि रूप सिद्ध हो जाता है।।१-३८।।
आदेः ॥ १-३९॥ आदेरित्यधिकारः कगचज (१-१७७) इत्यादि सूत्रात् प्रागविशेषे वेदितव्यः॥
अर्थः-यह सूत्र आदि अक्षर के संबंध में आदेश देता है कि इस सूत्र से प्रारंभ करके आगे १–१७७ सूत्र से पूर्व में रहे हुए सभी सूत्रों के सम्बन्ध में यह विधान है कि जहाँ विशेष कुछ भी नहीं कहा गया है; वहां इस सूत्र से शब्दों में रहे हुए आदि अक्षर के सम्बन्ध में कहा हुआ उल्लेख' समझ लेना। अर्थात् सूत्र संख्या १-३९ से १-१७६ तक में यदि किसी शब्द के सम्बन्ध में कोई उल्लेख हो; और उस उल्लेख में आदि मध्य, अन्त्य अथवा उपान्त्य जैसा कोई उल्लेख न हो तो समझ लेना कि यह उल्लेख आदि अक्षर के लिये है; न कि शेष अक्षरों के लिये।।१-३९।।
त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् ।। १-४० ।। त्यदादेरव्ययाच्च परस्य तयोरेव त्यदाद्यव्यययोरादेः स्वरस्य बहुलं लुग् भवति।। अम्हेत्थ अम्हे एत्था जइमा जइ इमा। जइह जइ अहं।
अर्थः-सर्वनाम शब्दों और अव्ययों के आगे यदि सर्वनाम शब्द और अव्यय आदि आ जाय; तो इन शब्दों में रहे हुए स्वर यदि पास-पास में आ जाँय; तो आदि स्वर का बहुधा करके लोप हो जाया करता है।
'वयम्' संस्कृत शब्द है। इसका मूल 'अस्मद् के प्रथमा के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय सहित सूत्र संख्या ३-१०६ 'अम्हे' आदेश होता है। यों अम्हे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अत्र' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'एत्थ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७ से 'अ' का 'ए'; और २-१६१ से 'त्र' के स्थान पर 'स्थ होकर 'एत्थ' रूप सिद्ध हो जाता है।
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