SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50 प्राकृत व्याकरण 'अम्हे + हे + एत्थ = अम्हेत्थ ;' यहाँ पर सूत्र संख्या १ - ४० से एत्थ के आदि 'ए' का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर अम्हेत्थ रूप सिद्ध हुआ। तथा जहाँ लोप नहीं होता है; वहाँ पर 'अम्हे एत्थ' होगा। यदि संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप जइ होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य' का 'ज'; और १-१७७ से 'द्' का लोप होकर 'जइ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'इयम्' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'इमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७२ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के परे रहने पर मूल शब्द 'इदम्' का 'इम' आदेश होता है। तत्पश्चात् सिद्ध हेम व्याकरण के ४-४-१८ से स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय लगाकर 'इमा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'जइ+इमा=जइमा;' यहाँ पर सूत्र संख्या १- ४० से 'इमा' के आदि स्वर 'इ' का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर 'जइमा' रूप सिद्ध हो जाता है। तथा जहाँ लोप नहीं होता है; वहाँ पर 'जइ इमा' होगा । 'अहम्' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप भी 'अहं' ही होता है । अस्मद् मूल शब्द में सूत्र संख्या ३ - १०५ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर अस्मद् का 'अहं' आदेश होता है। यों 'अहं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'जइ + अहं=जइह;' यहाँ पर सूत्र संख्या १- ४० से ' अहम् के आदिस्वर 'अ' का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर 'जइह' रूप सिद्ध हो जाता है। तथा जहाँ पर लोप नहीं होता है, वहाँ पर 'जइ अहं' होगा ।।१ - ४० ।। पदादपेर्वा ।। १-४१ ।। पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादे लुंग् वा भवति ।। तं पि तमवि । किं पि किमवि । केण वि । केणावि । कहं पि कहमवि ।। अर्थः-पद के आगे रहने वाले अपि अव्यय के आदि स्वर 'अ' का विकल्प से लोप हुआ करता है। जैसे- तं पि तमवि। इत्यादि रूप से शेष उदाहरणों में भी समझ लेना। इन उदाहरणों में एक स्थान पर तो लोप हुआ है; और दूसरे स्थान पर लोप नहीं हुआ है। लोप नहीं होने की दशा में संधि योग्य स्थानों पर संधि भी हो जाया करती है। 'त' की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। 'अपि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप यहाँ पर 'पि' । इसमें सूत्र संख्या १-४१ से 'अ' का लोप होकर 'पि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'अपि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अवि' है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' होकर 'अवि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'किं' शब्द की सिद्धि १ - २९ में की गई है। 'केन' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'केण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से 'किम्' का 'क' ; ३-६ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-१४ से 'क' के 'अ' का 'ए' होकर 'केण' रूप सिद्ध हो जाता है। इसी के साथ में ' अपि' अव्यय है; अतः 'ण' में स्थित 'अ' और 'अपि' का 'अ' दोनों की संधि १-५ से होकर 'केणावि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कथमपि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'कहमवि' होता है। इसकी सिद्धि १ - २९ में कर दी गई है । ।१-४२ ।। : स्वरात् तरच द्विः ।।१-४२।। इतेः पदात् परस्य इतेरादे र्लुग् भवति स्वरात् परश्च तकारो द्विर्भवति । किं ति। जं ति। दिट्ठं ति। न जुत्तं ति।। स्वरात्। तहति। झति । पिओ त्ति । पुरिसो त्ति ।। पदादित्येव । इअ विञ्झ-गुहा-निलयाए । । अर्थः-यदि 'इति' अव्यय किसी पद के आगे हो तो इस 'इति' की आदि 'इ' का लोप हो जाया करता है और यदि 'इ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy