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________________ 352 : प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उल्लावेन्तीए रूप सिद्ध हो जाता है। उअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है। "खिद्यन्त्या' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जूरन्तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१३२ से संस्कृत धातु 'खिद्' के स्थान पर प्राकृत में 'जूर' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत में 'खिद्' धातु में स्थित विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त रूप 'जूर' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; ३-१८१ से वर्तमान कृदन्त वाचक 'शतृ' प्रत्यय रूप 'न्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'न्त' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'न्त्' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'ङी' -ई प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जूरन्तीए' रूप सिद्ध हो जाता है। तु संस्कृत निश्चय वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'तु' ही होता है। 'भीतया' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भीआए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'आप-आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के साथ आगे प्राप्त प्रत्यय रूप 'आ' रूप की प्राप्ति; और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भीआए' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उद्वातशीलया' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप उव्वाडिरीए होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-१४५ से शील-अर्थक 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से पूर्वस्थ 'ड' में स्थित 'अ' स्वर का आगे ‘इर' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ड्' में आगे प्राप्त 'इर' के 'इ' की संधि ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'र' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग अर्थक 'की-ई प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उव्वाडिरीए' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'तया' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्त्य हलन्त् 'त्' का लोप; ३-३३ से शेष 'त' में प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'त' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'त्' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग अर्थक 'भी-ई' प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तीए' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'भणितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भणि रूप सिद्ध हो जाता है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'विस्मरामः' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विम्हरिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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