________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 353
२-७४ से 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थानीय रूप के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; और ३-१५५ से प्राकृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-१४४ से वर्तमान काल के बहुवचन में तृतीय पुरुष में अर्थात् उत्तम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'मः' के स्थान पर प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विम्हरिमो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९३।।
वेव्व च आमन्त्रणे ॥ २-१९४॥ वेव्व वेव्वे च आमन्त्रणे प्रयोक्तव्ये।। वेव्व गोले। वेव्वे मुरन्दले वहसि पाणि।
अर्थः- आमन्त्रणे अर्थ में अथवा संबोधन-अर्थ में वेव्व और वेव्वे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- हे गोले वेव्व गोले हे सखि! हे मुरन्दले वहसि पानीयम् हे मुरन्दले! वहसि पाणिअं हे मुरन्दल! तू पीने योग्य वस्तु विशेष लिये जा रहा है।
वेव्व प्राकृत साहित्य का रूढ़ रूपक और रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्कता नहीं है।
गोले देशज शब्द रूप होने से संस्कृत रूप का अभाव है। इसमें सूत्र संख्या ३-४१ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर गोले रूप सिद्ध हो जाता है।
वेव्व प्राकृत साहित्य का रूढ रूपक और रूढ अर्थक संबोधनात्मक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। _ 'मुरन्दले' संबोधनात्मक व्यक्ति वाचक संज्ञा रूप है। इसमें सूत्र संख्या ३-४१ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'मुरन्दले' रूप सिद्ध हो जाता है।
"वहसि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप भी 'वहसि होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त रूप 'वह' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमानकाल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वहसि रूप सिद्ध हो जाता है। पाणिअंरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०१ में की गई है। ।। २-१९४।।
मामि हला हले सख्या वा ।। २-१९५॥ एते सख्या आमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः।। मामि सरिसक्खराण वि।। पणवह माणस्य हला।। हले हयासस्स। पक्षे। सहि एरिसि च्चिअ गई।
अर्थः- 'सखि' को आमन्त्रण देने में अथवा संबोधित करने में 'मामि' अथवा 'हला' अथवा 'हले' अव्यवों में से किसी भी एक अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जब अव्यय विशेष का प्रयोग करना हो तो उक्त तीनों में से किसी भी एक अव्यय का प्रयोग किया जा सकता है; अन्यथा बिना अव्यय के भी 'हे सखि-सहि!' ऐसा प्रयोग भी किया जा सकता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हे (सखि)! सद्दशाक्षराणाम् अपि मामि! सरिसक्खराणवि। प्रणमत मानाय हे (सखि)! =पणवह माणस्स हला। हे (सखि)! हताशस्य-हले हयासस्स।। पक्षान्तर में उदाहरण इस प्रकार है:- हे सखि! ईद्दशी एव गतिः= सहि! एरिसि च्चिअ गई।। इत्यादि।।
'मामि' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से रूढ-अर्थक और रूढ रूपक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
सदृशाक्षराणाम् संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'सरिसक्खराण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'ऋ' के स्थान पर 'रि' आदेश; २-७७ से 'ऋ' में स्थित् 'द्' का लोप; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'सा' में रहे हुए दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org