SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 351 'खेदे' संस्कृत सप्तम्यंत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जूरणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१३२ से 'खिद्' के स्थान पर 'जूर' आदेश; ४-४४८ से संस्कृतवत् ‘क्रिया से संज्ञा-निर्माण अर्थ 'अन' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'र' के साथ प्राप्त प्रत्यय 'अन' के 'अ' की संधि; १-२२८ से प्राप्त प्रत्यय 'अन' के 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय का आदेश; 'D' में 'ङ' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'ण' के 'अ' की इत्संज्ञा होने से 'अ' का लोप और १-५ से हलन्त 'ण' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'जूरणे' रूप सिद्ध हो जाता है। 'अ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'उल्लपनशीलया' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप उल्लाविरीइ होता है। इसमें मूल रूप उल्लपनस्य-भावं इति उल्लापम् होता है। तदनुसार सूत्र संख्या १-११ से एवं समास-स्थिति होने से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का लोप; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति: २-१४५ से 'शील-अर्थक' इर प्रत्यय की प्राप्ति: १-१० से पर्वस्थ 'व' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'इर' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'व्' में आगे प्राप्त 'इर' के 'इ' की संधि; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से 'अ' का लोप; १-५ से हलन्त 'र' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'डी' =इ प्रत्यय की संधि; ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उल्लाविरीई रूप सिद्ध हो जाता है। वि अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'तव' संस्कृत षष्ठ्यन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुहं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'युष्मत' सर्वमानीय षष्ठ्यंत एकवचन रूप 'तव' के स्थान पर 'तुहं आदेश की प्राप्ति होकर तहं रूप सिद्ध हो जाता है। (हे) 'मृगाक्षि' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मयच्छि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; और ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर 'मयच्छि' रूप सिद्ध हो जाता है। किं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'ज्ञेयम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णेअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १–१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'णेअं रूप सिद्ध हो जाता है। 'उल्लापयन्त्या' संस्कृत तृतीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उल्लावेन्तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३९ से संस्कृत 'उल्लाप' धातु को चुरादिगण वाली मानने से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में केवल 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१५८ से विकरण प्रत्यय के आगे वर्तमान कृदन्त का प्रत्यय 'न्त' होने से उक्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'उल्लाव्' के हलन्त 'व् में आगे प्राप्त विकरण प्रत्यय के स्थानीय रूप 'ए' की संधि; ३-१८१ से वर्तमान कृदन्त वाचक 'शतृ' प्रत्यय के स्थानीय प्रत्यय'न्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'ड्री' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'न्त' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त ‘न्त्' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'डी'=ई' प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy