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________________ 74 : प्राकृत व्याकरण विकल्प से 'द' में 'उ' का 'आगम'; १-१७७ से 'व्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुआरं रूप सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप में १-१७७ से 'व्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दारं रूप सिद्ध हो जाता है। चतुर्थ रूप में २-७७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वारं रूप सिद्ध हो जाता है। 'नैरयिकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नेरइओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; १-१७७ से 'य' और 'क' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'नेरइओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'नारकिकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नारइओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'नारइओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __'पश्चात् कर्म' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छे कम्म' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'श्च' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च'; १-७९ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; १-११ से 'त्' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पच्छे कम्म' रूप सिद्ध हो जाता है। 'असहाय्य' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'असहेज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७९ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; २-२४ से 'य्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; यों 'असहेज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है। देवासुरी का संस्कृत और प्राकृत रूप समान ही होता है।।१-७९।। पारापते रो वा ॥ १-८० ।। पारापत शब्दे रस्थस्यात एद् वा भवति।। पारेवओ पारावओ।। अर्थः-पारापत शब्द में 'र' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-पारापतः पारेवओ और पारावओ। 'पारापतः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पारेवआ' और 'पारावओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८० से 'रा' के 'आ' को विकल्प से 'ए'; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पारेवओ' और 'पारावओ' रूप सिद्ध हो जाते है।।१-८०।। मात्रटि वा ॥१-८१ ।। मात्रट्प्रत्यये आत एद् वा भवति।। एत्तिअमेत्त। एत्तिअमत्त।। बहुलाधिकारात् क्वचिन्मात्रशब्दे पि। भोअण-मेत्त।। अर्थ:-मात्रट प्रत्यय के 'मा' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-एतावन्-मात्रं-एत्तिअमेत्तं और एत्तिअमत्त।। बहुलाधिकार से कभी-कभी 'मात्र' शब्द में भी 'आ' का 'ए' देखा जाता है। जैसे-भोजन-मात्रम् भोअण-मेत्त।। 'एतावन्'-मात्रम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'एत्तिअमेत्तं' और 'एत्तिअमत्त होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१५७ में एतावन् के स्थान पर 'एत्तिअ आदेश; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-८१ से 'मा' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए'; द्वितीय रूप में १-८४ से 'मा' के 'आ' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'एत्तिअमेत्तं' और 'एत्तिअमत्तं' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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