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________________ 194 : प्राकृत व्याकरण 'ढ'; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' और द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोनों रूप 'जढलं' तथा 'जढरं क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। बठरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बढला' और 'बढरो' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ'; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'बढलो' और 'बढरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। निष्ठुरः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'निठुलो' और 'निठुरो' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से 'ठ्' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति, २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्तिः १-२५४ से 'र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'निठुलो' एवं 'निठुरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। चरण-करणम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चरण-करणं' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'चरण-करणं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'भमरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४४ में की गई है। द्वादशाङ्ग संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'दुवालसङ्गे' रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७९ से 'द्वा' को पृथक्-पृथक् करके हलन्त 'द्' में 'उ' की प्राप्ति; १-२५४ की वृत्ति से द्वितीय 'द्' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से प्राप्त 'सा' में स्थित दीर्घस्वर 'आ' को 'अ' की प्राप्ति, और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आर्ष-प्राकृत में 'दुवालसंगे' रूप की सिद्धि हो जाती है। यदि 'द्वादशाङ्ग ऐसा प्रथमान्त संस्कृत रूप बनाया जाए तो सूत्र संख्या ४-२८७ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आर्ष-प्राकृत में प्रथमान्त रूप 'दुवालसंगे' सिद्ध हो जाता है। ।।१-२५४।। स्थूले लो रः ।। १-२५५।। स्थूले लस्य रो भवति।। थोरं।। कथं थूलभद्दो।। स्थूरस्य हरिद्रादि लत्वे भविष्यति।। अर्थः- 'स्थूल' शब्द में रहे हुए 'ल' का 'र' होता है। जैसे :- स्थूलम् थोर।। प्रश्न : 'थूल भद्दो' रूप की सिद्धि कैसे होती है? उत्तर : 'थूल थद्दो' में रहे हुए थूल' की प्राप्ति 'स्थूर' से हुई है; न कि 'स्थूल' से; तदनुसार सूत्र संख्या १-२५४ से 'स्थूर' में रहे हुए 'र' को 'ल' की प्राप्ति होगी; और इस प्रकार 'स्थूर' से 'थूल' की प्राप्ति हो जाने पर 'स्थूलम् थोर' के समान 'स्थूर' में रहे हुए 'ऊ' को 'ओ' की प्राप्ति की आवश्यकता नहीं है। थोरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२४ में की गई है। स्थूल भद्र : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थूल भद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-२५४ से प्रथम 'र' का 'ल'; २-८० से द्वितीय 'र' का लोप; २-८९ से 'द्' को द्वित्व '६' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'थूल भद्दो' रूप की सिद्धि हो जाती है।।१-२५५।। लाहल-लांगल-लांगुले वादे णः ।।१-२५६॥ • एषु आदेर्लस्य णो वा भवति ।। णाहणो लाहलो॥णङ्गलं लङ्गल।। णफूल। ललं।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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