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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 193 का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' में से शेष रहे हुए 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हलिद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जहुट्ठिला' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९६ में की गई है।
'सिढिलो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१५ में की गई है।
'मुखरः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मुहलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ख' का 'ह'; १-२५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुहलो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चरण:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चलणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'चलणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वरुणः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वलुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वलुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'करुणः '' 'संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'कलुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ में 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कलुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इंगालो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ४७ में की है।
'सत्कार:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्कालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'त्' का लोप २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति, १ - २५४ से 'र' का 'ल'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सक्काला' रूप की सिद्धि हो जाती है।
सोमाला रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७१ में की गई है। चिलाओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १- १८३ में की गई है। फलिहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १३२ में की गई है। फलहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २३२ में की गई है। फालिहद्दो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २३२ में की गई है। काहलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१४ में की गई है।
रुग्णः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लुक्को' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल'; २-२ से संयुक्त 'ग्ण' के स्थान पर द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लुक्को' रूप की सिद्धि हो जाती है।
अपद्वारम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवद्दाल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २३१ में 'प' का 'व'; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व्' में से शेष हुए 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति; १ - २५४ से 'र' का 'ल'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अवद्दाल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भसलो' - रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २४४ में की गई है।
जठरम्-संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जढलं' और 'जढर' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १९९ से 'ठ' का
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