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192 : प्राकृत व्याकरण
हरिद्रादौ लः ।। १-२५४ ।।
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हरिद्रादिषु शब्देषु असंयुक्तस्य रस्य लो भवति ।। हलिद्दी दलिद्दाइ । दलिद्दो दालिद्दं । हलिद्दो । जहुट्ठलो । सिढिलो । मुहलो । चलणो । वलुणो । कलुणो । इंगालो । सक्कालो । सोमालो । चिलाओ । फलिहा । फलिहो । फालिहद्दो । काहलो । लुक्को। अवद्दालं । भसलो । जढलं । बढलो । निट्टुलो बहुलाधिकाराच्चरण शब्दस्य पादार्थवृत्तेरेव। अन्यत्र चरण- करणं ।। भ्रमरे स संनियोगे एव । अन्यत्र भमरो । तथा । जढरं । बढरो । निट्टु रो इत्याद्यपि ।। हरिद्रा दरिद्राति । दरिद्र । हारिद्र । युधिष्ठिर । शिथिर । मुखर । चरण । वरूण । करूण | अंगार । सत्कार । सुकुमार । किरात । परिखा । परिघ । पाणिभद्र । कातर । रुग्ण । अपद्वार । भ्रमर । जरठ । बठर । निष्ठुर । इत्यादि ।। आर्षे दुवालसंगे इत्याद्यपि ।
अर्थ :- इसी सूत्र में नीचे लिखे हुए हरिद्रा, दरिद्राति इत्यादि शब्दों में रहे हुए असंयुक्त अर्थात् स्वरान्त 'र' वर्ण का 'ल' होता है। जैसे: हरिद्रा-हलिद्दी ; दरिद्राति = दलिद्दाइ; दरिद्रः- दलिद्दो; दारिद्रयम्-दालिद्दं; हारिद्रः -हलिद्दो:; युधिष्ठिरः=जहुट्ठिलो; शिथिरः=सिढिलो, मुखरः=मुहलो; चरणः = चलणो; वरूण:-वलुणो; करूण:-कलुणो; अंगार : - इंगालो; सत्कार :- सक्कालो; सुकुमारः=सोमालो; किरातः-चिलाओ; परिखा-फलिहा; परिघः=फलिहो; पारिभद्रः=फालिहद्दो; कातरः=काहलो; रुग्णः-लुक्को; अपद्वारम्=अवद्दालं; भ्रमरः - भसलो; जठरम्-जढलं; बठरः = बढलो; और निष्ठुरः = निट्टु लो ।। इत्यादि । इन उपरोक्त सभी शब्दों में रहे हुए असंयुक्त 'र' वर्ण का 'ल' हुआ है। इसी प्रकार से अन्य शब्दों में भी 'र' का 'ल' होता है; ऐसा जान लेना || 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'चरण' शब्द में रहे हुए असंयुक्त 'र' का 'ल' उसी समय में होता है; जबकि 'चरण' शब्द का अर्थ 'पैर' हो; यदि 'चरण' शब्द का अर्थ चारित्र वाचक हो तो उस समय में 'र' का 'ल' नहीं होगा। जैसे:चरण-करणम् = 'चरण करणं' अर्थात् चारित्र तथा गुण-संयम । इसी प्रकार से 'भ्रमर' शब्द में रहे हुए 'र' का 'ल' उसी समय में होता है जबकि इसमें स्थित 'म' का 'स' होता हो; यदि इस 'म' का 'स' नहीं होता है तो 'र' का भी 'ल' नहीं होगा। जैसेः- भ्रमरः = 'भमरो' इसी प्रकार से बहुलं सूत्र के अधिकार से कुछ एक शब्दों में 'र' का 'ल' विकल्प से होता है; तदनुसार उन शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है:- 'जठरम्' =जढरं जढलं; बठरः = बढरो बढलो; और निष्ठुरः- निट् ठुरा निठुलो इत्यादि ।। आर्ष-प्राकृत में 'द' का भी 'ल' होता हुआ देखा जाता है। जैसे :- द्वादशांगे - दुवालसंग ।। इत्यादि।।
रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८८ में की गई है।
'दरिद्राति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दलिद्दाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से प्रथम एवं असंयुक्त 'र' का 'ल'; २- ७९ से अथवा २-८० से द्वितीय 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' में से शेष रहे हुए 'द्' का द्वित्व 'द्द' और ३-१९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दलिद्दाइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दरिद्रः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दलिद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २–७९ से अथवा २ -८० से द्वितीय 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' में से शेष रहे हुए 'द्' का द्वित्व 'द्द' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दलिद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दारिद्र्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दालिद्द' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से ' असंयुक्त' 'र' का 'ल'; २-७९ से अथवा २-८० से द्वित्व '' का लोप; २- ७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' तथा 'य्' में से शेष रहे हुए ‘द्' का द्वित्व ‘द्द'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त हुए 'म्' का अनुस्वार होकर 'दालिद्द' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हारिद्रः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हलिद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १ - २५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २ - ७९ से अथवा २-८० से द्वितीय संयुक्त 'र्'
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