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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 191
डाह-वौ कतिपये ।। १-२५० ।। कतिपये यस्य डाह व इत्येतो पर्यायेण भवतः ।। कइवाह। कइअवं।।
अर्थः- 'कतिपय' शब्द में स्थित 'य' वर्ण को क्रम से एवं पर्याय रूप से 'आह' की और 'ब' की प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार है:- 'कइवाह' और 'कइअवं ।। ___ 'कतिपयम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत में कइवाहं और कइअवं दो रूप होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२५० से 'य' को 'आह' की प्राप्ति; १-५ से 'व' में स्थित 'अ' के साथ प्राप्त 'आह' में स्थित 'आ' की संधि होकर 'वाह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'कइवाह' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'कइअवं' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' और 'प' का लोप; १-२५० से 'य' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'कइअवं रूप की सिद्धि हो जाती है ।। १-२५०।।
किरि-भेरे रो डः ॥१-२५१॥ अनयो रस्य डो भवति ।। किडी। भेडो।। अर्थः- 'किरि' और 'भेर' शब्द में रहे हुए 'र' का 'ड' होता है। जैसे:- किरि: किडी भेरः भेडो॥
"किरिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किडी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५१ से 'र' का 'ड' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'किडी' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'भेरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'भेडो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५१ से 'र' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भेडा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२५१।। .
पर्याणे डा वा ॥१-२५२।। पर्याणे रस्य डा इत्यादेशो वा भवति ।। पडायाणं । पल्लाणं ॥
अर्थः- 'पर्याण' शब्द में रहे हुए 'र' के स्थान पर विकल्प से 'डा' का आदेश होता है। जैसे:- पर्याणम्=पडायाण अथवा पल्लाण।।
'पर्याणम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पडायाणं' और 'पल्लाणं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२५२ से 'र' के स्थान पर 'डा' का विकल्प से आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पडायाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-६८ से 'य' के स्थान पर 'ल्ल' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'पल्लाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२५२।।
करवीरे णः ।।१-२५३।। करवीरे प्रथमस्य रस्य णो भवति ।। कणवीरो।। अर्थः- करवीर शब्द में स्थित प्रथम 'र' का 'ण' होता है। जैसे:- करवीरः कणवीरो।। 'करवीरः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'कणवीरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५३ से प्रथम 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कणवीरो' रूप की सिद्धि हो जाती है ।।१-२५३।।
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