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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 195 अर्थः- लाहल, लांगल और लांगूल शब्दों में रहे हुए आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण' होता है। जैसे:लाहलः-णाहलो अथवा लाहलो।। लांगलम्=णंगलं अथवा लंगलं ।। लांगलम्=णंगलं अथवा लंगूल।।
'लाहलः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णाहलो' और 'लाहलो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'णाहलो' और 'लाहलो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'लांगलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णंगलं' और 'लंगलं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'णङ्गलं' और 'लङ्गलं दोनो रूपों की सिद्धि हो जाती है। __ 'लांङ्गलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णलं' और 'लङ्गलं' 'होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'गंगूल' और 'लंगूलं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२५६।।
ललाटे च ।। १-२५७॥ ललाटे च आदे र्लस्य णो भवति ॥ चकार आदेरनुवृच्यर्थः ॥ णिडालं । णडालं।।
अर्थः- 'ललाट' शब्द में आदि में रहे हुए 'ल' का 'ण' होता है। मूल-सूत्र में 'च' अक्षर लिखने का तात्पर्य यह है कि सूत्र संख्या १-२५६ में आदि' शब्द का उल्लेख है; उस 'आदि' शब्द को यहाँ पर भी समझ लेना, तदनुसार ललाट' शब्द में जो दो 'लकार ' है; उनमें से प्रथम 'ल' का ही 'ण' होता है; न कि द्वितीय 'लकार' का; इस प्रकार 'तात्पर्य-विशेष' को समझाने के लिये ही 'च' अक्षर को मूल सूत्र में स्थान प्रदान किया है। उदाहरण इस प्रकार है:- "ललाटम् =णिडालं और णडाला। "णिडालं' और 'णडाल' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-४७ में की गई है।।१-२५७।।
शबरे बो मः ।।१-२५८।। शबरे बस्य मो भवति ।। समरो।। अर्थः 'शबर' शब्द में रहे हुए 'ब' का 'म' होता है। जैसे-शबर:=समरा।। 'शबरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'समरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२५८ से 'ब' का 'म' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समरो' रूप की सिद्धि हो जाती है।।१-२५८।।
स्वप्न-नीव्यो र्वा ॥१-२५९।। अनयोर्वस्य मो वा भवति । सिमिणो सिविणो ।। नीमी नीबी ।।
अर्थः- स्वप्न और नीवी शब्दों में रहे हुए 'व' का विकल्प से 'म' होता है। जैसे:- स्वप्न-सिमिणो अथवा सिविणो।। नीवी-नीमी अथवा नीवी।।
'सिमिणा' और 'सिविणो' रूपो की सिद्धि सूत्र संख्या १-४६ में की गई है।
'नीवी' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नीमी' और 'नीवी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५९ से 'व' का विकल्प से 'म' होकर क्रम से 'नीमी' और 'नीवी' दोनों रूपो की सिद्धि हो जाती है।।१-२५९।।
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