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हद्धी
परिशिष्ट-भाग : 419 सोहिल्लो पु वि (शोभावान्) शोभायुक्त; २-१५९॥ हणुमतो पु. (हनुमान्) अञ्जना सुन्दरी का पुत्र, हनुमान १-१२१; सोअरिअं न. (सौन्दर्यम्) सुन्दरता; १-१।
२-१५९। स्खल -(धातु) (खिसकने) अर्थ में
हणुमा पु. (हनुमान) हनुमान, अञ्जना सुन्दरी का पुत्र; २-१५९/ खलिअ वि (स्खलित) जिसने त्रुटि की हो वह; नीचे खिसका हुआ; १-४।
हत्थुल्ला पु. (हस्तौ) दो हाथ; २-१६४।
हत्थो खलिओ वि (स्खलितः) जिसने त्रुटि की हो वह;
पु. (हस्तः ) हाथ; २-४५, ९०। २-७७।
हत्था पु. (हस्ती) दो हाथ; २-२६४। खलिअंवि (स्खलितम्) खिसका हुआ; २-८९।
अ. (हा ! धिक्) खेद अनुताप, धिक्कार अर्थक अव्यय; स्तम्भ -(धातु) चकित होना, स्तम्भ समान होना।
२-१९२। थम्भिज्जइ, ठम्भिज्जइ, भावे प्रयोग
हण- (धातु) हनन अर्थ मेंअक (स्तम्भ्यते) उससे हक्का-बक्का हुआ जाता
हयं वि (हतम्) मारा हुआ, नष्ट हुआ;१-२०९; १-१०४। है; २-९।
निहओ वि (निहतः) विशेष रूप से मारा हुआ; थम्भिज्जइ, ठम्भिज्जइ, भावे प्रयोग
१-१८० अक (स्तम्भ्यते) उससे स्तम्भ समान हुआ जाता हन्द अ (गृहणार्थे) ग्रहण करो-लेओ' के अर्थ में प्रयुक्त है;२-९।
होने वाला अव्यय; २-१८१॥ स्त्यासंखाय सं वि (संस्त्यानम्) सान्द्र, निविड़,
हन्दि अ. (विषादादिषु) विषाद, खेद, विकल्प, पश्चाताप, प्रतिध्वनि, आलस्य; १-७४।
निश्चय, सत्य, ग्रहाण-(लेओ) आदि अर्थक अव्यय;
२-१८०,१८१। स्था- (धातु) ठहरने अर्थ में
हे सर्व (अहम्) मै; १-४०। चिटुइ अक. (तिष्ठति) वह ठहरता है; १-१९९२-३६ ।
हयासो ठाइ अक (तिष्ठति) वह ठहरता है; १-१९९।
वि (हताशः) जिसकी आश नष्ट हो गई हो वह, ठविआ ठाविओ वि (स्थापितः), जिसकी स्थापना की गई
निराश; १-२०९ । हो वह; १-६७।
हयासस्स वि. (हताशस्य) हताश की, निराश की;
२-१९५। पइट्रिअं परिट्रवि (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठा प्राप्त को; १-३८। परिट्रविओ परिद्राविओ वि (प्रतिस्थापित:) जिसके स्थान पर
सक (हरति) वह हरण करता है; नष्ट करता है; अथवा जिसके विरुद्ध में स्थापना की गई हो वह;
१-१५५ । १-६७।
हरन्ति सक (हरन्ति) वे हरण करते है; आकर्षित करते हैं; परिट्रविरं वि (परिस्थापितम्) विशेष रूप में जिसकी स्थापना
२-२०४ । की गई हो वह, अथवा उसको; १-१२९ संठविओ
हिअं वि (हतम्) हरण किया हुआ; चुराया हुआ; संठाविओ वि (संस्थापितः) व्यवस्थित रूप में
१-१२८। जिसकी स्थापना की गई हो वह; १-१६७।
ओहरइ सक (अवहरति) वह अपहरण करता है; १७२। स्मर- (धातु)
अवहडं वि (अपहतम्) चुराया हुआ; अपहरण किया विम्हरिमो सक (विस्मरामः) हम भूलते हैं; २-१९३
हुआ; १-२०६। स्वप्
आहड वि (आहतम्) कहा हुआ; १-१२८|
वाहित्तं वि (व्याहृतम्) कहा हुआ; १-१२८। सोवई, सुवइ, अक. (स्वपिति) वह सोता है, सोती है
वाहिओ, वाहित्तो वि (व्याहतः) उक्त,कथित २-९९। १-६४। सुप्पई अक. (स्वपिति) सोती है;२-१७९ ।
संहरइ सक (संहरति) वह हरण करता है, चुराता है;
१-३० सुत्तो वि (सुप्तः) सोया हुआ; २-७७। पसुत्तो, पासुत्तो वि. (प्रसुप्तः) (विशेष ढंग से) सोया
हर पु. (हर) महादेव, शंकर; १-१८३। हुआः १-४४।
हरस्स पु. (हरस्य) हर की, महादेव की, शंकर की;
१-१५८ (हा) अ. (पाद-पूर्ति-अर्थे) पाद-पूर्ति के अर्थ में,
पु. (हदे) बडे जलाशय में; २-१२० । सम्बोधन अर्थ में काम आने वाला अव्यय; १-६७।
हरक्खन्दा हरखन्दा पं (हरस्कन्दी) महादेव और कार्तिकेय; २-९७
हरडई स्त्री (हरीतकी) हरड नामक औषधि विशेषः १-९९, पु. (हंसः) पक्षी-विशेष; हंस; २-१८२। हंहो
२०६। अ. (हं, भोः, हंहो!) संबोधन, तिरस्कार; गर्व, प्रश्न आदि अर्थक अव्यय;२-२१७।
नं. (गृहम) घर, मकान; १-१३४, १३५।
हर
3.
हंसो
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